उत्तराखंड की आग से सबक लेंगे हम

उत्तराखंड के जंगलों के बाद हिमाचल प्रदेश और कश्मीर के वन में भी आग फैलने से एक बात तो साफ है कि दावाग्नि यानी जंगल में लगी आग को बुझाने का हमारा तंत्र कितना लचर है। दूसरी बात यह है कि उत्तराखंड या हिमाचल के लोगों की जिंदगी भले ही जंगल और पर्यावरण के बीच गुजर रही हो, लेकिन उनका वनों से अपनापा लगातार कम हो रहा है।
ऐसा नहीं कि तेरह जिलों और करीब 2270 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली आग एक ही दिन में इतनी विकराल हुई हो। कहा जा रहा है कि यह आग करीब तीन महीने से लगी हुई है। आग भी किसी एक दिन चिंगारी से ही उठी होगी। ऐसा हो नहीं सकता कि आसपास के गांवों के लोगों का ध्यान उस पर नहीं गया हो, लेकिन अपनापा की कमी के चलते उन्होंने उसे अनदेखा कर दिया होगा।
 
यह सच है कि पहाड़ी इलाकों में जब से जंगलों की रक्षा के लिए कड़े कानून बनाए गए, लकड़ी के तस्करों को काबू करने के लिए चौकसी बढ़ाई गई, तब से उन इलाकों की आबादी का पर्यावरण प्रेम कम होता चला गया। वनों पर उनकी जीविका का आधार अब कम हुआ है। जंगल से सूखी लकड़ी तो वे ला सकते हैं, लेकिन वे वनोपज का पहले की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते। इसलिए स्थानीय आबादी का लगाव लगातार कम होता गया है। यही वजह है कि पहले कोई चिंगारी निकलती भी है तो लोग उसे अनदेखा कर देते हैं, जिसका इस बार भयावह नतीजा दिख रहा है। 
 
फिर वनों की देखभाल और उनमें आग लगने की आपात हालत पर काबू पाने का हमारा तंत्र भी ना तो वैज्ञानिक नजरिए वाला है और ना ही चुस्त-दुरुस्त। पारंपरिक ज्ञान का भी ध्यान रखा जाता तो आबादी के सीमावर्ती इलाकों और तराई के नजदीकी इलाकों में चीड़ के पेड़ नहीं लगाए जाते। लेकिन पहाड़ की मिट्टी को कटने से रोकने के लिए इन इलाकों में चीड़ के पेड़ अंधाधुंध लगाए गए। चीड़ की लकड़ी आग जल्दी पकड़ती है और आग को फैलाने में मदद भी करती है। 
 
वैसे वन विभाग को इस साल सर्दियों में बारिश नहीं होने के बाद पहले से तैयार हो जाना चाहिए था। चूंकि इस साल सर्दियों में ना तो ज्यादा बर्फ पड़ी और ना ही बारिश हुई, लिहाजा जंगलों में नमी की कमी हो गई। अगर जमीन पर नमी रही होती तो आग लगने के बाद भी वह विकराल नहीं हो पाती। लेकिन इस बार नमी नहीं रही और वक्त से पहले पड़ी गर्मी के चलते पत्ते भी ज्यादा गिरे।
 
इससे आग को भड़कने में मदद ही मिली और हालात इतने खराब हो गए कि आग तेरह जिलों तक फैल गई। संभवत: यह पहला मौका है, जब आग बुझाने के लिए सेना, वायुसेना के एमआई-17 हेलीकॉप्टर और एनडीआरएफ की टीमें लगानीं पड़ी हैं। वैसे उत्तराखंड में 1992, 1997, 2004 और 2012 में भी बड़ी आग लगी थी। लेकिन हालात इतने खराब नहीं थे, जितने इस बार हुए हैं, उतना पहले कभी नहीं हुआ। वन विभाग की लापरवाही ही कही जाएगी कि छोटी चिंगारी या एक छोटे क्षेत्र में फैली आग को वक्त रहते वह देख नहीं पाया और उस पर काबू नहीं कर पाया। 
 
अब बढ़ती आग और उससे निकले धुएं की वजह से इलाके में गर्मी और कार्बन प्रदूषण भी बढ़ गया है। जानकारों को अंदेशा है कि इसका असर ग्लेशियरों पर भी पड़ेगा यानी वे वक्त से पहले ही ज्यादा पिघलेंगे और निचले इलाके में नदियों के जरिए पानी बढ़ेगा। गर्मी के मौसम में यह बाढ़ अच्छी तो लग सकती है, लेकिन पर्यावरण चक्र के लिहाज से यह भी ठीक नहीं है। इस आग से सबक लेने की जरूरत है। अब वन विभाग को पहले से ही चौकस होना पड़ेगा और लोगों की भागीदारी और लगाव जंगलों के प्रति बढ़ाना होगा। तभी ऐसी आपदाओं को वक्त रहते टाला जा सकेगा। 

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