योग की चमत्कारी शक्ति, व्हीलचेयर से उठ खड़े हुए फोटो पत्रकार

राम यादव

शनिवार, 21 जून 2025 (07:12 IST)
21 June World Yoga Day: 'योग — जीवनदायी शक्ति' यूरोप के सिनेमाघरों में चली एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म रही है, जिसे लकवा-पीड़ित रहे, किंतु योगाभ्यास से ठीक हो गए एक फ्रांसीसी पत्रकार ने बनाया था।
 
स्तेफ़ान अस्केल एक फ़ोटोग्राफ़र पत्रकार हैं। उस समय क़रीब 40 साल के थे, जब आचानक गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। चलना-फिरना बहुत मुश्किल हो गया। डॉक्टरों ने कहा कि रीढ़ का ऑपरेशन करना पड़ेगा। ऑपरेशन हुआ, लेकिन, ऑपरेशन के बाद कमर से नीचे तक के पूरे शरीर को लकवा मार गया। डॉक्टरों से जो कुछ बन पड़ा, सब कुछ किया। कोई लाभ नहीं हुआ। अंततः उन्हें यही कहना पड़ा कि अब तो जीवनपर्यंत लकवे के साथ ही जीना पड़ेगा। 
 
फ़ोटो-पत्रकार होने के नाते अस्केल बीमारी से पहले घूमने-फिरने के आदी थे। स्वाभाविक ही था कि शेष जीवन बिस्तर में पड़े-पड़े या पहियाकु्र्सी में बैठे-बैठे निठल्ले बिताना उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। संयोग से उन्हें योग करने के लाभकारी प्रभावों का पता चला और वे यौगिक-उपचार तथा योगाभ्यास द्वारा काफ़ी कुछ ठीक भी हो गए। ठीक होते ही लगभग आधी दुनिया की यात्रा की। हर जगह ऐसे लोगों से मिलना-जुलना हुआ, जो योग और ध्यान के माध्यम से अपनी बीमारियों से या तो मुक्त हो गए थे या अपनी शारीरिक बाधाओं को पूरी तरह या काफ़ी कुछ साध कर सामान्य जीवन बिता रहे थे।
  
दस वर्षों के विश्वभ्रमण का निचोड़ : स्तेफ़ान अस्केल की डेढ़ घंटे की फ़िल्म 'योग — जीवनदायी शक्ति' दस वर्षों तक चले उनके विश्वभ्रमण का सिनेमा के पर्दे के लिए आत्कथा जैसा सांस्कृतिक-आध्यात्मिक चित्रण है। फ़िल्म 2019 के अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से ठीक पहले, 13 जून से, यूरोप के कई देशों में एक साथ चली। उनकी यात्रा का अंतिम पड़ाव इसराइल का येरुसलेम शहर था। इस लंबी यात्रा ने एक समय लकवे से पंगु रहे अस्केल को जीवन को समर्पणभाव से जीने और दुनिया को सकारात्मक ढंग से देखने की एक नई दृष्टि प्रदान की। फ़िल्म में वे कहते हैं, 'दस साल पहले मैं एक दूसरी दुनिया में बंधक था।' शराब की लत के कारण पत्नी छोड़कर चली गई। 2006 में पैर संज्ञाशून्य हो गए। ऑपरेशन हुआ तो कमर से नीचे के अंगों को लकवा मार गया। 'जीवन घृणा और ईर्ष्या' से भर गया था।
 
इन्हीं परिस्थितियों में स्तेफ़ान अस्केल जब फ्रांस के एक प्रसिद्ध अस्पताल 'ओस्पिताल दे ला सालपेत्रियेर' में अपना इलाज़ करवा रहे थे, तभी वहां के एक डॉक्टर जौं-पियेर फ़ार्सी ने उन्हें सलाह दी कि वे आज की आधुनिक चिकित्सा पद्धति से ठीक नहीं हो सकते। यौगिक उपचार की शरण लें, शायद ठीक हो जाएंगे। यह सलाह अत्यंत असामान्य थी, क्योंकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति (एलोपैथी/ अंग्रेज़ी चिकित्सा) के फ्रांसीसी डॉक्टर हर प्रकार की वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को केवल कोसना-धिक्कारना ही जानते हैं।  
 
योगगुरू बीकेएस अयंगर से प्रेरणा मिली : अस्केल ने जब इस दिशा में खोजबीन की, तो उन्हें पता चला कि भारत के योगगुरू बीकेएस अयंगर ने फिसलन-रोधी चटाइयों, रस्सियों, पट्टों और पीठ के बल लेटने लायक अर्धवृत्ताकार लकड़ी की काठियों की मदद से — गंभीर क़िस्म की शारीरिक बाधाओं वाले लोगों के लिए भी — योगासन संभव बनाने की विधियां विकसित की हैं। अस्केल ने पहली बार जब इन चीजों को देखा, तो वे सोचने लगे कि ये सब उपचार-सामग्रियां हैं या यातना-विधियां! तब भी उन्होंने अपना उपचार करवाया और जर्मनी में व्युर्त्सबुर्ग शहर के पास के एक ईसाई मठ में ध्यान साधना (मेडिटेशन) की जापानी 'ज़ेन' विधि भी सीखी। 2003 से एक जर्मन ईसाई, फ़ादर विलीगिस यैगर, बेनेडिक्ट पंथ के इस मठ में यह जापानी विधि सिखाते हैं। 
 
उपचार के दौरान मिल रही राहतों से योग में स्तेफ़ान अस्केल की रुचि बढ़ती गई। उनका लकवा जब काफ़ी कुछ ठीक हो गया, तो उन्हें विचार आया कि उन्हें योग विद्या के असीम और कई बार चमत्कारिक लाभों और अपने अनुभवों के बारे में एक फ़िल्म बनानी चाहिए। फ़िल्म में लकवे से उबरने के अपने कष्टमय संघर्ष की हल्की-सी झलक देने के बाद, अस्केल दर्शक को सीधे अमेरिका में सैन फ्रांसिस्को के पास की, सेंट क्वेन्टिन नाम की उच्चसुरक्षा जेल में ले जाते हैं। वहां गंभीर अपराध कर चुके कुछ ऐसे क़ैदियों से बातचीत करते हैं, जो कसरतों आदि के साथ-साथ योगाभ्यास भी करते थे। उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई थी। अपने अंतकाल की प्रतीक्षा कर रहे उनमें से एक ने कहा कि योग तनावमुक्त करने के साथ-साथ नए अनुभवों का धनी भी बनाता है। 
 
सफ़ारी करने गई, योग सिखाने लगी : फ़िल्म के एक दूसरे दृश्य में, अमेरिका की पेज एलेन्सन बताती हैं कि अफ्रीकी वन्यजंतुओं को देखने के लिए वे अपने माता-पिता के साथ केनिया की सफ़ारी-यात्रा पर गई थीं और वहीं रह गईं। अब वे वहां राजधानी नैरोबी की ग़ंदी बस्तियों के बच्चों और मसाई कबीले के लोगों को योग सिखाती हैं। इसराइल में अस्केल को कट्टरपंथी यहूदियों के शहर बेत शेमेह में एक ऐसा यहूदी दंपति मिला, जो पहले धार्मिक नहीं था, पर योग करने से पति-पत्नी दोनों में अपने धर्म के प्रति नई आस्था जाग उठी। येरूसलेम में अस्केल ने देखा कि वहां तो इस्लाम भक्त फ़िलिस्तीनी गृहणियां भी यहूदियों के साथ मिलकर योगाभ्यास करती हैं!
 
स्तेफ़ान अस्केल का कहना है कि योग हर प्रकार की संस्कृतियों, आयु वर्गों और शारीरिक बाधाओं वाले लोगों को लाभ पहुंचाता है। अमेरिका की पेज एलेन्सन नैरोबी के बधिर बच्चों को योग सिखाने के लिए सांकेतिक भाषा वाले एक निःशब्द तरीके से काम लेती हैं, जबकि सामान्य बच्चों के लिए उनका अलग तरीका है। 80 साल के एरिक स्माल कई दशकों से 'मल्टिपल स्क्लेरोसिस' से पीड़ित रहे हैं।

यह बीमारी केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम) की एक बीमारी है, जो मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी और आंखों में प्रकाश ग्रहण करने वाली ऑप्टिक तंत्रिका (नर्व) को दुष्प्रभावित करती है। भारत के योगाचार्य बीकेएस अयंगर द्वारा विकसित विधि को आधार बनाकर, एरिक स्माल ने 'मल्टिपल स्क्लेरोसिस' के रोगियों का जीवन आसान बनाने का अपना एक अलग तरीका विकसित किया है। इससे स्वयं उनका अपना जीवन तो आसान बना ही, दूसरों का जीवन भी आसान बन रहा है।       
              
अयंगर ने योग से साधे असाध्य रोग : बीकेएस अयंगर 2014 में इस दुनिया से चले गए। उन्होंने लगभग 70 वर्षों तक स्वयं योगाभ्यास किया और अनगिनत लोगों को सिखाया भी। अस्केल की फ़िल्म में उनके साथ बातचीत का एक दृश्य भी है। असाध्य समझे जा रहे रोगों को भी योग द्वारा ठीक करने या उनसे काफ़ी हद तक राहत दिलाने की अयंगर विधियां आज ऐसे कई अस्पतालों आदि में भी अपनाई जाती हैं, जहां वैकल्पिक चिकित्सा विधि की सुविधा भी है। 
 
स्तेफ़ान अस्केल मूलतः फ्रेंच भाषा में बनी अपनी फ़िल्म में योग के न केवल शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी लाभों के ही उदाहरण दिखाते हैं, उसके अदृश्य, पर उतने ही सकारात्मक सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्ष पर भी प्रकाश डालते हैं। वे विभिन्न देशों के ऐसे लोगों के मुंह से उनके अनुभव सुनाते हैं, जो जीवन से निराश हो चले थे, पर योग और ध्यान से उन्हें अपना खोया हुआ जीवन दुबारा मिल गया। 
 
आध्यात्मिक अनुभूति : इन भुक्तभोगियों की आपबीतियों से ध्वनित हुए बिना नहीं रहता कि जब भी किसी के घोर कष्टमय जीवन में कोई सुखद चमत्कार होता है, तो इससे उसे जो आत्मिक तृप्ति मिलती है, वह सभी धर्मों-पंथों से परे, एक अलौकिक आध्यात्मिक अनुभूति बने बिना नहीं रहती। 
 
इसीलिए आसन, प्रणायाम और ध्यान के रूप में अपने तीनों अंगों वाला योगाभ्यास, खुशहाल लोगों की 'वेलनेस' कहलाने वाली खुशफहमी से कहीं अधिक, भारत का दिया एक ऐसा अनुभवसिद्ध विज्ञान बनता जा रहा है, जिस पर अनगिनत शोधकार्य हो रहे हैं और जिसे सुख, स्वास्थ्य और संतोष की सर्वांगीण कुंजी माने जाने लगा है। 
 
योग से डीएनए की 'मरम्मत' : विज्ञान पत्रिका 'फ्रन्टियर्स इन इम्यूनोलॉजी' में जुलाई 2017 में प्रकाशित एक खोज में यहां तक सिद्ध हुआ पाया गया है कि योग में तन और मन को जिस तरह जोड़ने का प्रयास किया जाता है, उससे हमारे डीएनए की शब्दशः 'मरम्मत' तक हो सकती है और शरीर निरोग बनता है। योग यदि विज्ञान-सम्मत न होता, तो यूरोप-अमेरिका में उस पर अनगिनत शोधकार्यों के साथ-साथ कई सिनेमा फ़िल्में भी नहीं बनती और न लाखों-करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग योग-ध्यान सीख रहे होते, जिन्हें हिंदू धर्म में कोई रुचि नहीं है। 
 

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