भारत इन दिनों दुनिया के ऐसे समाजों की सूची के शीर्ष पर है, जिस पर बहुराष्ट्रीय निगमों की आसक्त और अपलक आँख निरंतर लगी हुई है। यह उसी का परिणाम है कि चिकने और चमकीले पन्नों के साथ लगातार मोटे होते जा रहे हिन्दी के कुछ दैनिक समाचार-पत्रों के पृष्ठों पर एकाएक भविष्यवादी चिंतकों की एक नई नस्ल अँगरेजी की माँद से निकलकर, बिला नागा, अपने साप्ताहिक स्तंभों में आशावादी मुस्कान से भरे अपने छायाचित्रों के साथ आती है, और हिन्दी के मूढ़ पाठकों को गरेबान पकड़कर समझाती है कि तुम्हारे यहाँ हिन्दी में अतीतजीवी अंधों की बूढ़ी आबादी इतनी अधिक हो चुकी है कि उनकी बौद्धिक-अंत्येष्टि कर देने में ही तुम्हारी बिरादरी का मोक्ष है।
दरअसल कारण यह कि वह बिरादरी अपने 'आप्तवाक्यों' में हर समय 'इतिहास' का जाप करती रहती है और इसी के कारण तुम आगे नहीं बढ़ पा रहे हो। इतिहास ठिठककर तुम्हें पीछे मुड़कर देखना सिखाता है। इसलिए वह गति अवरोधक है, जबकि भविष्यातुर रहने वाले लोगों के लिए गर्दन मोड़कर पीछे देखना तक वर्ज्य है। एकदम निषिद्ध है।
दुनिया की हर भाषा की जिंदगी में एक बार कोई निहायत ही निष्करुण वक्त दबे पाँव आता है और 'उसको बोलने वालों' के हलक में हाथ डालकर उनकी जुबान पर रचे-बसे शब्दों को दबोचता है और धीरे-धीरे उनके कोमल गर्भ में साँस ले रहे अर्थों का गला घोंट देता है
ऐसे में बार-बार इतिहास के पन्नों में रामशलाका की तरह आज के प्रश्नों के भविष्यवादी उत्तर बरामद कर सकना असंभव है। हमारी सुनो, और जान लो कि इतिहास एक रतौंध है, तुमको उससे बचना है। हिस्ट्री इज बंक। वह बकवास है। उसे भूल जाओ। बहरहाल 'अगर मगर मत कर। इधर उधर मत तक। बस सरपट चल।'
भविष्यवाद यह नया सार्थक और अग्रगामी पाठ है। जबकि इस वक्त की हकीकत यह है कि हमारे भविष्य में हमारा इतिहास एक घुसपैठिए की तरह हरदम मौजूद रहता है। उससे विलग, असंपृक्त और मुक्त होकर रहा ही नहीं जा सकता। इतिहास से मुक्त होने का अर्थ स्मृति-विहीन हो जाना है।
सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अनाथ हो जाना है। लेकिन वे हैं कि बार-बार बताए चले जा रहे हैं कि तुम्हारे पास तुम्हारा इतिहासबोध तो कभी रहा ही नहीं है। और जो है, वह तो इतिहास का बोझ है। तुम लदे हुए हो। तुम अतीत के कुली हो और फटे-पुराने कपड़ों में लिपटे हुए अपना पेट भर पालने की जद्दोजहद में हो, जबकि ग्लोबलाइजेशन की यूचर एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर खड़ी है और सीटी बजा चुकी है।
एक अल्प उपभोगवादी भारतीय प्रवृत्ति को पूरी तरह उपभोक्तावादी बनाने की व्यग्रता से भरने में जी-जान से जुट गए हैं, ताकि भूमंडलीकरण के कर्णधारों तथा अर्थव्यवस्था के महाबलीश्वरों के आगमन में आने वाली अड़चनें ही खत्म हो जाएँ और इन अड़चनों की फेहरिस्त में वे तमाम चीजें आती हैं, जिनसे राष्ट्रीयता की गंध आती हो।
इसका एक कारण तो यह भी है कि यह हिन्दुस्तान में संवाद, संचार और व्यापार की सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है। दूसरे, इसको राजभाषा या राष्ट्रभाषा का पर्याय बना डालने की संवैधानिक भूल गाँधी की उस पीढ़ी ने कर दी
कहना न होगा कि इसमें इतिहास, संस्कृति और सभी भारतीय भाषाएँ शीर्ष पर हैं। फिर हिन्दी से तो 'राष्ट्रीयता' की सबसे तीखी गंध आती है। नतीजतन भूमंडलीकरण की विश्व-विजय में सबसे पहले निशाने पर हिन्दी ही है।
इसका एक कारण तो यह भी है कि यह हिन्दुस्तान में संवाद, संचार और व्यापार की सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है। दूसरे, इसको राजभाषा या राष्ट्रभाषा का पर्याय बना डालने की संवैधानिक भूल गाँधी की उस पीढ़ी ने कर दी, जो यह सोचती थी कि कोई भी मुल्क अपनी राष्ट्रभाषा के अभाव में स्वाधीन बना नहीं रह सकता। चूँकि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं, बल्कि चिंतन प्रक्रिया एवं ज्ञान के विकास और विस्तार का भी हिस्सा होती है, उसके नष्ट होने का अर्थ एक समाज, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का नष्ट हो जाना है। वह प्रकारांतर से राष्ट्रीय एवं जातीय अस्मिता का प्रतिरूप भी है। इस अर्थ में भाषा उस देश और समाज की एक विराट ऐतिहासिक धरोहर भी है। अतः उसका संवर्धन और संरक्षण एक अनिवार्य दायित्व है।
जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अखबार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अखबार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अँगरेजी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिए और इस प्रकार हिन्दी को समाचार-पत्र में इंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की।
गुलामी के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ने वाले नायकों को, अँगरेजों ने नहीं, बल्कि हमीं ने मारा था। आजादी के लिए 'आग्रह' या 'सत्याग्रह' करने वाले भारतीयों पर क्रूरता के साथ लाठियाँ बरसाने वाले बब्बर हाथ, अँगरेजों के नहीं, हिन्दुस्तानी दरोगाओं के ही होते थे
मैंने अपने पर लगने वाले संभव आरोप मसलन प्रतिगामी, अतीतजीवी अंधे, राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा, जिसमें मैंने हिन्दी को इंग्लिश बनाकर दैनिक अखबार में छापे जाने से खड़े होने वाले भावी खतरों की तरफ इशारा करते हुए लिखा, प्रिय भाई, हमने अपनी नई पीढ़ी को बार-बार बताया और पूरी तरह उसके गले भी उतारा कि अँगरेजों की साम्राज्यवादी नीति ने ही हमें ढाई सौ साल तक गुलाम बनाए रखा। दरअसल ऐसा कहकर हमने एक धूर्त- चतुराई के साथ अपनी कौम के दोगलेपन को इस झूठ के पीछे छुपा लिया।
जबकि, इतिहास की सचाई तो यही है कि गुलामी के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ने वाले नायकों को, अँगरेजों ने नहीं, बल्कि हमीं ने मारा था। आजादी के लिए 'आग्रह' या 'सत्याग्रह' करने वाले भारतीयों पर क्रूरता के साथ लाठियाँ बरसाने वाले बब्बर हाथ, अँगरेजों के नहीं, हम हिन्दुस्तानी दरोगाओं के ही होते थे।
अपने ही देश के वासियों के ललाटों को लाठियों से लहूलुहान करते हुए हमारे हाथ जरा भी नहीं काँपते थे। कारण यह कि हम चाकरी बहुत वफादारी से करते हैं और यदि वह गोरी चमड़ी वालों की हुई तो फिर कहने ही क्या?
पूछा जा सकता है कि इतने निर्मम और निष्करुण साहस की वजह क्या थी? तो कहना न होगा कि दुनियाभर के मुल्कों के दरमियान 'सारे जहाँ से अच्छा' ये हमारा ही वो मुल्क है, जिसके बाशिंदों को बहुत आसानी से और सस्ते में खरीदा जा सकता है।
अपने ही देश के वासियों के ललाटों को लाठियों से लहूलुहान करते हुए हमारे हाथ जरा भी नहीं काँपते थे। कारण यह कि हम चाकरी बहुत वफादारी से करते हैं और यदि वह गोरी चमड़ी वालों की हुई तो फिर कहने ही क्या?
देश में जगह-जगह घटती आतंकवादी गतिविधियों की घटनाएँ, हमारे ऐसे चरित्र का असंदिग्ध प्रमाणीकरण करती हैं। दूसरे शब्दों में हम आत्मस्वीकृति कर लें कि 'भारतीय', सबसे पहले 'बिकने' और 'बेचने' के लिए तैयार हो जाता है और यदि वह संयोग से व्यवसायी और व्यापारी हुआ तो सबसे पहले जिस चीज का सौदा वह करता है, वह होता है उसका जमीर।
बाद इस सौदे के उसमें किसी भी किस्म की नैतिक-दुविधा शेष नहीं रह जाती है और 'भाषा, संस्कृति और अस्मिता' आदि चीजों को तो वह खरीदार को यों ही मुफ्त में बतौर भेंट दे देता है।
ऐसे में यदि कोई हिंसा के लिए भी सौदा करे तो उसे कोई अड़चन अनुभव नहीं होती है। फिर वह हिंसा अपने ही 'शहर', 'समाज' या 'राष्ट्र' के खिलाफ ही क्यों न होने जा रही हो। बहरहाल, मेरे प्यारे भाई अब ऐसी हिंसा सुनियोजित और तेज गति के साथ हिन्दी के खिलाफ शुरू हो चुकी है। इस हिंसा के जरिये भाषा की हत्या की सुपारी आपके अखबार ने ले ली है। वह भाषा के खामोश हत्यारे की भूमिका में बिना किसी तरह का नैतिक-संकोच अनुभव किए खासी अच्छी उतावली के साथ उतर चुका है।
उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि एक भाषा अपने को विकसित करने में कितने युग लेती है। (डेविड क्रिस्टल तो एक शब्द की मृत्यु को एक व्यक्ति की मृत्यु के समान मानते हैं। अँगरेजी कवि ऑडेन तो बोली के शब्दों को इरादतन अपनी कविता में शामिल करते थे कि कहीं वे शब्द मर न जाएँ और महाकवि टीएस एलियट प्राचीन शब्द, जो शब्दकोश में निश्चेष्ट पड़े रहते थे, को उठाकर समकालीन बनाते थे कि वे फिर से साँस लेकर हमारे साथ जीने लगे)।
आपका अखबार उस सर्प की तरह है, जो बड़ा होकर अपनी ही पूँछ अपने मुँह में ले लेता है, और खुद को ही निगलने लगता है। आपका अखबार हिन्दी का अखबार होकर हिन्दी को निगलने का काम करने जा रहा है
आपको शब्द की तो छोड़िए, भाषा तक की परवाह नहीं है, लगता है आप हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार नहीं चला रहे हैं, बल्कि अँगरेजी के पाठकों की नर्सरी का काम कर रहे हैं।
आप हिन्दी के डेढ़ करोड़ पाठकों का समुदाय बनाने का नहीं, बल्कि हिन्दी के होकर हिन्दी को खत्म करने का इतिहास रचने जा रहे हैं। आप 'धंधे में धुत' होकर जो करने जा रहे हैं, उसके लिए आपको आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी।
आपका अखबार उस सर्प की तरह है, जो बड़ा होकर अपनी ही पूँछ अपने मुँह में ले लेता है, और खुद को ही निगलने लगता है। आपका अखबार हिन्दी का अखबार होकर हिन्दी को निगलने का काम करने जा रहा है, जो कारण जिलाने के थे, वे ही कारण मारने के बन जाएँ इससे बड़ी विडम्बना भला क्या हो सकती है।
यह आशीर्वाद देने वाले हाथों द्वारा बढ़कर गर्दन दबा दिए जाने वाली जैसी कार्रवाई है। कारण कि हिन्दी के पालने-पोसने और या कहें कि उसकी पूरी परवरिश करने में हिन्दी पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही आई है, जबकि आपको याद होना चाहिए कि सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से उपजी 'भाषा-चेतना' ने इतिहास में कई-कई लंबी लड़ाइयाँ लड़ी हैं। इतिहास के पन्नो पलटेंगे तो आप पाएँगे कि आयरिश लोगों ने अँगरेजी के खिलाफ बाकायदा एक निर्णायक लड़ाई लड़ी, जबकि उनकी तो लिपि में भी भिन्नता नहीं थी।
फ्रैंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाएँ अँगरेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के विरुद्ध न केवल इतिहास में अपितु इस 'इंटरनेट युग' में भी फिर नए सिरे से लड़ना शुरू कर चुकी हैं। इन्होंने कभी अँगरेजी के सामने समर्पण नहीं किया।
बहरहाल मेरे इस पत्र का उत्तर अखबार मालिक ने तो नहीं ही दिया, और वे भला देते क्या? और देते भी क्यों? सिर्फ संपादक और मेरे अग्रज ने कहा कि हिन्दी में कुछ जनेऊधारी तालिबान पैदा हो गए हैं, जिससे हिन्दी के विकास को बहुत बड़ा खतरा हो गया है।
हिन्दी में कुछ जनेऊधारी तालिबान पैदा हो गए हैं, जिससे हिन्दी के विकास को बहुत बड़ा खतरा हो गया है। यह संपादकीय चिंतन नहीं अखबार के कर्मचारी की विवश टिप्पणी थी, क्योंकि उनसे तुरंत कहा जाएगा कि श्रीमान् आप अपने हिन्दी प्रेम और नौकरी में से कोई एक को
यह संपादकीय चिंतन नहीं अखबार के कर्मचारी की विवश टिप्पणी थी, क्योंकि उनसे तुरंत कहा जाएगा कि श्रीमान् आप अपने हिन्दी प्रेम और नौकरी में से कोई एक को चुन लीजिए। बहरहाल, अखबार ने इस अभियान को एक निर्लज्ज अनसुनी के साथ जारी रखा और पिछले सालों से वे निरंतर अपने संकल्प में जुटे हुए हैं।
और अब तो हिन्दी में अँगरेजी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दलालों ने, विदेशी पूँजी को पचा कर मोटे होते जा रहे हिन्दी के लगभग सभी अखबारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि इसकी नागरी-लिपि को बदल कर, रोमन करने का अभियान छेड़ दीजिए, और वे अब इस तरफ कूच कर रहे हैं।
उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेंडा बना लिया है, क्योंकि बहुराष्ट्रीय निगमों की महाविजय इस सायबर युग में रोमन लिपि की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो सकती है। यह विजय अश्वों नहीं, चूहों की पीठ पर चढ़कर की जानी है। जी हाँ कम्प्यूटर माउस की पीठ पर चढ़कर।
अँगरेजों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था- 'अँगरेजों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आप स्वयं का मरना बहुत जरूरी है। और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ ढकेल देते हैं।
ठीक इसी युक्ति से हिन्दी के अखबारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल के ये चिंतक यही बता रहे हैं कि हिन्दी का मरना, हिन्दुस्तान के सामाजिक-आर्थिक हित में बहुत जरूरी हो गया है। यह काम देशसेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वरना तुम्हारा देश ऊपर उठ ही नहीं पाएगा। परिणामस्वरूप वे हिन्दी को विदा कर देश को ऊपर उठाने के लिए कटिबद्ध हो गए हैं।