बड़ा विचित्र समय है। सारी नैतिकताएं, सारी मान्यताएं, सारे शिष्टाचार और सारे आदर्श दरकिनार किए जा रहे हैं। कोई किसी को चंद रोज पहले तक जी भरकर गाली दे रहा था, अचानक उसकी जय-जयकार करता नजर आ रहा है।
कोई कल तक जिसके कसीदे पढ़ रहा था आज उसे जी भरकर कोस रहा है। कल तक जिसका नमक खाया आज उसी को घाव देकर उस पर नमक छिड़का जा रहा है। क्या चुनाव का यही मतलब है?
कुछ दिन पहले तक हम राजनेताओं को कोस रहे थे कि उनकी भाषा और हरकतें इस देश के लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर कर रही हैं, लेकिन अब बुद्धिजीवियों की हरकतें भी इसी दायरे में नजर आ रही हैं।
यहां दो घटनाओं का उल्लेख करना जरूरी है। पहली घटना दिल्ली प्रेस क्लब में हुई, जहां यूआर अनंतमूर्ति, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, के. सच्चिदानंद, प्रभात पटनायक, प्रभात डबराल, मिहिर पांड्या, राधावल्लभ त्रिपाठी, शबनम हाशमी, अली जावेद, नीलम मानसिंह, विवान सुंदरम सहित करीब सौ बुद्धिजीवियों ने बयान जारी किया जिसका लब्बो-लुआब यह है कि ‘नरेन्द्र मोदी यदि सत्ता में आए तो देश अपने लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार खो बैठेगा।’
बयान में कहा गया है कि ‘जो अत्याचारी, भ्रष्टाचारी, धार्मिक उन्माद फैलाने वाला, सांप्रदायिक और जातीय आधार पर भड़काने वाला हो उसे वोट न किया जाए। यह एकवचन के विरुद्ध बहुवचन की लड़ाई है। इस समय स्वीकार की कायरता के बजाय इंकार के साहस की जरूरत है।’
यूं तो किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव की प्रक्रिया के दौरान बुद्धिजीवियों की सक्रिय भागीदारी का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन यह स्वागत तभी सार्थक है, जब बुद्धिजीवी निरपेक्ष होकर कोई बात कह रहे हों। अब जरा देखिए कि दिल्ली में बुद्धिजीवी क्या कह रहे या क्या कर रहे हैं।
वे कहते हैं- ‘किसी भी अत्याचारी, भ्रष्टाचारी, धार्मिक, सांप्रदायिक या जातिवादी उन्माद फैलाने वाले को वोट नहीं दिया जाए।' बिलकुल ठीक है। लोकतंत्र में निश्चित रूप से ऐसे लोगों का सत्ता के गलियारों तक पहुंचना देश के लिए खतरनाक होगा।
लेकिन आपकी अपील की सार्थकता उस समय गुड़-गोबर हो जाती है, जब आप इस बात को किसी एक पार्टी के किसी एक नेता (नरेन्द्र मोदी) पर थोप देते हैं।
ऐसा लगता है मानो नरेन्द्र मोदी में ही ये सारे दुर्गुण हैं और उनके अलावा भारतीय राजनीति में जितने भी अन्य नेता हैं, वे दूध के धुले या सीधे गंगोत्री से एकत्र किए गए गंगाजल से नहाए हुए हैं। (क्योंकि गंगोत्री के बाद, तो इसी राजनीति ने, गंगा को भी इतना मैला कर दिया है कि गंगा स्नान के मायने ही बदल गए हैं) खैर...!
आप कहते हैं, ‘यह एकवचन के विरुद्ध बहुवचन की लड़ाई है।' अब आप इसे अच्छा मानें या बुरा, मंजूर करें या कोसें लेकिन लोकतंत्र में एकवचन और बहुवचन का फैसला सौभाग्य या दुर्भाग्य से जनता करती है, चंद मुट्ठीभर लोगों का समूह या गिरोह नहीं।
बयान यह भी है कि ‘इस समय स्वीकार की कायरता के बजाय इंकार के साहस की जरूरत है।' बिलकुल ठीक है, लेकिन इस वाक्य के पीछे का ‘हिडन एजेंडा’ एक बार फिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ जाता है।
विडंबना देखिए... आप स्वीकार की कायरता कहते समय तो परोक्ष रूप से किसी को इंगित करते हैं, लेकिन लोगों को खुलकर बताने का यह साहस भी नहीं जुटा पाते कि यदि किसी को नकारना है तो फिर स्वीकार किए जाने वाला विकल्प कौन-सा है?
मान लिया कि देश की जनता मूर्ख या बुद्धिहीन है, लेकिन बुद्धिजीवियों का काम भी तो यही है कि वे बुद्धिहीनों में बुद्धि का जागरण करें। उन्हें बताएं कि सही क्या है? और गलत क्या है? लेकिन आप यह नहीं बताते। आप ‘एकवचन’ और ‘बहुवचन’ जैसी शाब्दिक जुगाली करके कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं।
आज के बुद्धिजीवियों की समस्या ही यही है। वे केवल यह कहकर कट लेते हैं कि मेरा काम केवल गलत को बता भर देना है, सही क्या है यह बताने से मेरा कोई लेना-देना नहीं।
ऐसी स्थिति में क्या यह सवाल नहीं उठना चाहिए कि- सही क्या है यह आप खुद भी जानते हैं या नहीं? यदि जानते हैं तो बताइए और नहीं जानते तो ‘स्वीकार की कायरता के बजाय इंकार का साहस (आप भी तो) दिखाइए।'
अब जरा दूसरे मामले की बात कर लें। यह मामला भी बहुत दिलचस्प है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह के मीडिया सलाहकार रहे डॉ. संजय बारू की एक किताब आई है- ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर।'
इस किताब को लेकर दो-तीन दिन से बवाल मचा हुआ है। इंटरनेट पर उपलब्ध इस किताब के जो चुनिंदा अंश मैंने पढ़े हैं वे बताते हैं कि डॉ. मनमोहनसिंह ने प्रधानमंत्री की तरह नहीं बल्कि गांधी परिवार या सोनिया गांधी तत्पश्चात राहुल गांधी की कठपुतली की तरह काम किया।
वैसे देखा जाए तो यह बताकर बारू ने कोई रहस्य उजागर नहीं किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने घनघोर रूप से उजागर और बहुचर्चित बात को रहस्य की तरह प्रस्तुत किया है। वे करीब 5 साल पहले प्रधानमंत्री कार्यालय छोड़ चुके थे और अब ऐन चुनाव के मौके पर उनकी यह किताब बाजार में आई है।
ध्यान से देखें तो इस चुनाव में कुछ घटनाओं का टाइमिंग सचिन या विराट कोहली के टाइमिंग को भी मात कर रहा है। स्टिंग ऑपरेशन का पुरोधा माना जाने वाला एक चैनल ऐन चुनाव के समय एक कथित स्टिंग के जरिए यह उजागर करता है कि अयोध्या कांड के समय कारसेवकों की तैयारी डाइनामाइट लेकर जाने की थी। भाजपा नेताओं को यह सब पता था... इत्यादि।
दूसरी तरफ एक किताब आती है, जो यूपीए सरकार पर लगने वाले ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ के आरोपों के बीच यह स्थापित करने की कोशिश करती है कि मनमोहनसिंह कठपुतली प्रधानमंत्री की तरह रहे। निश्चित रूप से ये सारी घटनाएं बौद्धिक उद्देश्य से कम और राजनीतिक नफे-नुकसान से जुड़ी ज्यादा नजर आती हैं।
दुख तो तब होता है, जब ऐसे धतकरमों को सिद्धांत, नैतिकता, शुचिता, लेखकीय या मानव अधिकार जैसे कवच से रक्षित करने की कोशिश होती है। डॉ. संजय बारू ने किताब जारी होने की टाइमिंग और किताब के कंटेंट पर उठे विवाद को लेकर जो सफाई दी है, वह भी बेमिसाल है।
वे कहते हैं यह ‘सूचना के अधिकार’ के ही विस्तार का मामला है। लेकिन मेरा मानना है कि इसे ‘राइट टू इन्फॉर्मेन’ के बजाय क्या ‘ब्रीच ऑफ ट्रस्ट' के मामले के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए?
आप किसी पर भरोसा करते हैं, उसे अपना सलाहकार बनाते हैं, मुसीबत, परेशानी या निजी मामलों में उससे सलाह-मशविरा करते हैं और एक दिन वही व्यक्ति उन सारी बातों को सार्वजनिक कर देता है।
बहस हो सकती है कि यदि कोई सूचना देशहित में है तो क्या उसे सामने नहीं आना चाहिए? बिलकुल ठीक, लेकिन पहले हमें यह तय कर लेना होगा कि क्या सचमुच वह सूचना और उसे जाहिर करने का समय देशहित में ही है?
यदि ऐसा नहीं है तो फिर बुद्धिजीवी और उस दलबदलू नेता में क्या फर्क रह जाता है, जो सिर्फ और सिर्फ अपने राजनीतिक फायदे के लिए चुनाव के वक्त इंसान की तरह नहीं मेंढक या गिरगिट की तरह व्यवहार करने लगता है।
कुछ समय पहले एक टूथपेस्ट का टीवी विज्ञापन बहुत चर्चित हुआ था। उसकी पंच लाइन थी- ‘क्या आपके टूथपेस्ट में नमक है?’ इन दिनों जो कुछ चल रहा है, उसे देखते हुए पूछने का मन करता है- ‘क्या आपके खून में नमक है?’