विपश्यना के प्रमुख आचार्य सत्यनारायण गोयनकाजी से किसी ने पूछा- 'गुरुजी क्या विपश्यना काम करती है? क्या इस साधना को सीखकर करने से सचमुच जीवन बदलता है?'
तब हँसकर गुरुजी ने कहा- 'बिलकुल, यह विद्या काम करती है बशर्ते हम काम करें।' इस विद्या को सीखने बहुत से लोग विपश्यना के केंद्रों पर कुछ दिनों के लिए आते हैं और वहाँ रहकर इसका सक्रिय अभ्यास जब करते हैं तो मन का मैलापन अवचेतन की गहराइयों तक साफ होना शुरू होता है। और ये मन के मैल ही तो हमारी समस्याओं की असल जड़ हैं।
धार निवासी डॉक्टर विजय गुप्ता, जो एक शिशु रोग विशेषज्ञ भी हैं, स्वयं अपनी वर्षों पुरानी सिगरेट पीने की लत से परेशान थे और इसे छोड़ने हेतु बड़े जतन वे कर चुके थे, पर सफलता नहीं मिल रही थी। फिर एक अवसर उनके जीवन में आया और इंदौर विपश्यना केंद्र पर उन्होंने गत दिसंबर में 10 दिवसीय विपश्यना शिविर में भाग लिया। शिविर पूरा होने के उपरांत उन्होंने पाया कि अब उन्हें सिगरेट की तलब नहीं उठती है। सिगरेट छूट चुकी है। वे इस परिवर्तन पर खुश थे।
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दो तीन दिन पहले उनसे बात हुई तो कहते हैं- बस इतना ही नहीं, मेरे जीवन में और भी कई बदलाव आए हैं। क्रोध भी काम हुआ है। काम करने की क्षमता में बढ़ोतरी हुई है सो अलग। पारिवारिक सामंजस्य बढ़ा है। नियमित साधना का अभ्यास जारी है।
भगवान बुद्ध द्वारा प्रणीत 'सर्वजन-हिताय सर्वजन-सुखाय' सभी के अपना सकने योग्य यह साधना विधि अत्यंत सुगम है। इस विधि को एक आम इंसान भी सहज ही सीख सकता है। स्वयं भगवान ने इसे उस समय की जन- भाषा पाली में अत्यंत उदात्त- चित्त से जनता को बाँटा था।
वे जानते थे कि भाषा क्लिष्ट होगी तो उसका अर्थ सामान्य जन को पढ़े-लिखे लोगों से समझना होगा अतः उनके लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं। तभी आज भी इस साधना को ठेठ ग्रामीण परिवेश से आए लोग भी उतनी ही कुशलता से अपनाते हैं जितनी और।