1.पहली कथा : इस कथा के अनुसार एक बार यमदूत एक राजा को उठाकर नरक ले आए। नरक में राजा ने यमदूत से कहा कि मुझे नरक क्यों लाए हो? मैंने तो कोई पाप नहीं किया है। इस पर यमदूत ने कहा कि एक बार एक भूखे विप्र को आपने अपने द्वार से भूखा ही लौटा दिया था। इसीलिए नरक लाए हैं। राज ने कहा कि कहा कि नरक में जाने से पहले मुझे एक वर्ष का समय दो। यमदूत ने यमराज की सलाह पर एक वर्ष का समय दे दिया।
राजा पुन: जीवित हो गया और फिर वह ऋषि-मुनियों के पास गया और उसने उन्हें अपनी सारी कहानी बता दी। तब ऋषियों के कहने पर राजा ने कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी को खुद ने व्रत रखा और ब्राह्मणों को एकत्रित कर उन्हें भरपेट भोजन कराया। वर्षभर बाद यमदूत राजा को फिर लेने आए और इस बार वे नरक ले जाने के बजाए, विष्णु लोक ले गए। तभी से इस दिन यमराज की पूजा की जाती है और उनके नाम का दीपक लगाया जाता है।
2.दूसरी कथा : दूसरी कथा के अनुसार हिम नाम के एक राजा का पुत्र हुआ तो ज्योतिषियों ने बताया कि यह अपने विवाह के चौथे दिन मर जाएगा। राजा इस बात से चिंतित हो गया। पुत्र बड़ा हुआ तो विवाह तो करना ही था। उसका विवाह कर दिया गया। विवाह का जब चौथा दिन आया तो सभी को राजकुमार की मृत्यु का भय सताने लगा लेकिन उसकी पत्नी निश्चिंत होकर महालक्ष्मी की पूजा करने लगी, क्योंकि वह महालक्ष्मी की भक्त थी। पत्नी ने उस दिन घर के अंदर और बाहर चारों ओर दीये जलाए और भजन करने लगी।
उस दिन सर्प के रूप में यमराज ने घर में प्रवेश किया ताकि राजकुमार को डंस कर उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी जाए। लेकिन दीपों की रोशनी से सर्प की आंखें चौंधियां गई और उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था की किधर जाएं। ऐसे में वह राजकुमार की पत्नी के पास पहुंच गया जहां वह महालक्ष्मी की आरती गा रही थी। सर्प भी उस मधुर आवाज और घंटी की धुन में मगन हो गया। सुबह होने के सर्प के भेष में आए यमराज को खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि मृत्यु का समय टल चुका था। इससे राजकुमार अपनी पत्नी के कारण दीर्घायु हुए और तभी से इस दिन यमराज के लिए दीप जलाने की प्रथा प्रचलन में आ गई।