दि‍वाली पर कविता : मन से मन का दीप जलाओ

मन से मन का दीप जलाओ
जगमग-जगमग दि‍वाली मनाओ
 
धनियों के घर बंदनवार सजती
निर्धन के घर लक्ष्मी न ठहरती
मन से मन का दीप जलाओ 
घृणा-द्वेष को मिल दूर भगाओ
 
घर-घर जगमग दीप जलते 
नफरत के तम फिर भी न छंटते 
जगमग-जगमग मनती दिवाली
गरीबों की दिखती है चौखट खाली
 
खूब धूम धड़काके पटाखे चटखते
आकाश में जा ऊपर राकेट फूटते
काहे की कैसी मन पाए दिवाली
अंटी हो जिसकी पैसे से खाली
गरीब की कैसे मनेगी दीवाली
खाने को जब हो कवल रोटी खाली
दीप अपनी बोली खुद लगाते 
गरीबी से हमेशा दूर भाग जाते
 
अमीरों की दहलीज सजाते 
फिर कैसे मना पाए गरीब दि‍वाली
दीपक भी जा बैठे हैं बहुमंजिलों पर 
वहीं झिलमिलाती हैं रोशनियां
 
पटाखे पहचानने लगे हैं धनवानों को
वही फूटा करती आतिशबाजियां 
यदि एक निर्धन का भर दे जो पेट 
सबसे अच्छी मनती उसकी दि‍वाली
 
हजारों दीप जगमगा जाएंगे जग में 
भूखे नंगों को यदि रोटी वस्त्र मिलेंगे
दुआओं से सारे जहां को महकाएंगे 
आत्मा को नव आलोक से भर देगें
 
फुटपाथों पर पड़े रोज ही सड़ते हैं 
सजाते जिंदगी की वलियां रोज है
कौन-सा दीप हो जाए गुम न पता 
दिन होने पर सोच विवश हो जाते

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