लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे की रेखा

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी उसी दौर में पहुंच गए हैं, जब उन्होंने मोदी को राष्ट्रीय चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद अहम पदों से इस्तीफा दे दिया था। एक बार फिर हालात कुछ ऐसे ही हैं। पहले आडवाणी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नहीं पहुंचे थे और अब संसदीय बोर्ड की बैठक में। आडवाणी के इस्तीफे के बाद वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक ने यह संपादकीय लिखा था। वर्तमान संदर्भ में भी यह उतना ही सामयिक है...


तो लालकृष्ण आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी के समस्त पदों से इस्तीफा दे ही दिया। उनके व्यक्तित्व को देखते हुए इसे बहुत आश्चर्य के साथ नहीं देखा जाना चाहिए। इस्तीफा उन्होंने भाजपा संसदीय बोर्ड और भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी से दिया है, पर ऐसा करके उन्होंने अपने, नरेंद्र मोदी और समूची भाजपा के बीच एक रेखा खींच दी है।

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आडवाणी को आखिर तक ये उम्मीद थी कि मोदी को उनकी अनुपस्थिति में चुनाव प्रचार की कमान नहीं सौंपी जाएगी। इसीलिए वो गोवा नहीं गए। उन्हें यह एहसास तो था कि उनके नीचे कि जमीन खिसक गई है पर ठीक-ठीक कितनी जमीन खिसकी है इसका अंदाज उन्हें नहीं था। मोदी की ताजपोशी ने पैरों के नीचे जमीन होने के एहसास को ख़त्म कर दिया। बंधी मुट्ठी खुल चुकी थी।

निश्चित ही सच का यह सामना आडवाणीजी के लिए बहुत विचलित करने वाला था। उनके लिए दो ही रास्ते थे- या तो इसे चुपचाप सहकर सही वक्त का इंतजार करो या इसी वक्त अपनी मौजूदगी का एहसास करवा दो। आडवाणी ने दूसरा रास्ता चुना। अब सब उनको मनाने में लगे हैं। अगर इस्तीफा वापस लेकर इस मान-मनौव्वल के बाद आडवाणी वापस आ जाते हैं तो वे अपने वजन को पहले से भी कम कर लेंगे।

दरअसल 2009 में आडवाणी को 'पीएम इन वेटिंग' के रूप में भरपूर मौका मिल चुका था। उस हार के सदमे से भाजपा आज तक नहीं उबर पाई है। 10 साल सत्ता से बाहर रहने के बाद भाजपा हर कीमत पर सत्ता में आना चाहती है। उसकी इस कुलबुलाहट और छटपटाहट में भाजपा के नई पीढ़ी के नेता और मोदी समर्थक 'अभी नहीं तो कभी नहीं' वाली मुद्रा में आ गए। मोदी की गुजरात में हुई तीसरी जीत इस पटकथा की भूमिका लिख चुकी थी। आडवाणी इसे चाहते हुए भी पढ़ने से इंकार कर रहे थे।

आडवाणी के सिपहसालार वक्त की नजाकत भांपकर इस 'मोदी रथ' पर चाहते हुए या ना चाहते हुए भी सवार हो गए थे। राजनाथसिंह तो संघ के इशारे पर इस पटकथा के लिए मंच सजाने में जुट ही चुके थे। अरुण जेटली और सुषमा जैसे महारथी भी मंच पर आ ही गए। इनके पास खोने को यों भी कुछ नहीं - अगर भाजपा सत्ता में आ ही गई तो अहम पद के लिए जोर लगाएंगे और नहीं आई तो तोहमत।

इस पंक्ति के नेताओं के लिए एक और अच्छी बात यह थी कि इन्होंने मोदी को तो हां कह दिया था पर आडवाणी को ना नहीं कहा था। बस, ये ही आडवाणी नहीं चाहते थे। यह सहज स्थिति आडवाणी अपने समर्थकों को नहीं देना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने इस्तीफा देकर एक लकीर खींच दी है अपने और मोदी के बीच। अब आप तय कीजिए कि आप किस तरफ हैं।

निश्चित ही समूची भाजपा और खुद आडवाणी इस असहज स्थिति से बच सकते थे। यहां सचिन तेंदुलकर का उदाहरण मौजूं होगा। सचिन को जब भारतीय टीम की कप्तानी दी गई थी तब वो इस पद के सबसे मजबूत दावेदार थे। उनके प्रदर्शन और व्यक्तित्व को देखकर सभी को लगता था कि वो एक बढ़िया कप्तान साबित होंगे।... पर ऐसा हुआ नहीं। उनका खेल लगातार प्रभावित हुआ। उन्होंने खुद को कप्तानी से अलग कर लिया और उन्हें धोनी की कप्तानी में खेलने में भी कोई गुरेज नहीं हुआ।... लेकिन यहां आडवाणी, मोदी की कप्तानी में खेलने को तैयार नहीं।

आपको तो पौधे लगाते रहना होगा, उनको सींचते रहना होगा।......सुकून भी उसी में है और व्यक्तित्व की गरिमा भी उसी में
दूसरी बार सचिन अपना सबक खुद भूल गए। लगातार खराब प्रदर्शन के बाद भी वे वन डे टीम में भी खेलना चाहते थे... नतीजा - उन्हें वन डे क्रिकेट से बहुत ख़ामोश-सी विदाई लेनी पड़ी। इसी से सबक लेकर उन्होंने इस बार मुंबई इंडियंस की जीत के साथ ही आईपीएल से संन्यास की घोषणा कर दी। अगर वो सही कदम उठाएंगे तो टेस्ट क्रिकेट से सही समय पर गरिमामय विदाई ले पाएंगे।

आईपीएल का ही उदाहरण लें तो मुंबई इंडियंस ने रिकी पोंटिंग जैसे अनुभवी खिलाड़ी को कप्तान बनाकर उतारा था। जब वो सफल नहीं हुए तो युवा रोहित शर्मा को कमान सौंपी गई... और मुंबई इंडियंस चैंपियन बन गई।..... यह कतई जरूरी नहीं है कि ऐसा ही भाजपा के साथ हो।

सारी बहस इसलिए भी भटक जाती है कि लोग मोदी के अच्छे या बुरे होने पर इसे केंद्रित कर देते हैं। अगर किसी को कप्तान बनाया है तो फिर अभी उसकी नेतृत्व क्षमता को परखा जाना है। पर आडवाणी 2009 में इस अवसर को गंवा चुके हैं। वो इसे समझते हुए भी नहीं समझना चाह रहे थे। इसका मतलब यह भी नहीं कि भाजपा में अब तक का आडवाणी का योगदान शून्य हो गया। कतई नहीं। उन्होंने बहुत मेहनत से भाजपा को गढ़ा है, संगठन तैयार किया है। उसको दरकिनार नहीं किया जा सकता। जैसे सन्यास ले लेने या कप्तानी से हट जाने भर से सचिन के सारे रिकॉर्ड शून्य नहीं हो गए।

एक बहुत अहम बात है जो समझी जानी चाहिए। अगर आप बहुत मेहनत से सींचकर किसी पौधे को बड़ा करते हैं, उसे पेड़ बनाते हैं तो ये बहुत अच्छी बात है। पर अगर आप यह चाहें कि इस पेड़ के फल कौन खाएगा और इसकी छांव में कौन बैठेगा यह भी आप ही तय करेंगे तो ये ग़लत है। .... उससे भी बुरी बात यह है कि किसी और के फल खाने से चिढ़कर आप पौधों को सींचना ही बंद कर दें..... आपको तो पौधे लगाते रहना होगा, उनको सींचते रहना होगा।......सुकून भी उसी में है और व्यक्तित्व की गरिमा भी उसी में।

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