फिदेल कास्त्रो : बुझ ही गया क्रांति के बारूद से सुलगा अधिनायकवाद का सिगार

फ़िदेल अलैजेंद्रो कास्त्रो रूज़। यानी फिदेल कास्त्रो। क्यूबा की क्रांति का महानायक। क्रांति के कालजयी, रोमांटिक और रहस्यमयी प्रतीक बन चुके चे गेवेरा का वरिष्ठ सहकर्मी, नायक। क्यूबा के स्वाभिमान का प्रतीक। एक समय में साम्यवाद की उम्मीद का चमकता सितारा। आज अस्त हो गया। रोशनी पहले ही कमज़ोर हो चुकी थी। जो कहता था कि - समाजवाद या मौत में से किसी एक को चुनना होगा -  आज मौत ने उसे चुन लिया। बचे हुए साम्यवादियों के लिए दुनिया में उनके हिसाब से बची हुई उम्मीद भी छिटक गई। बूढ़ी ही सही, उम्मीद तो थी। और जब जवान थी तो पूरी दुनिया के लाल सलाम का बुलंद वाइज़ भी थी। सोवियत संघ के विघटन की कराह सबसे ज़्यादा यहीं तो सुनाई दी थी। और यहीं पर बची हुई उम्मीदों को पनाह भी मिली थी।
 
तमाम किंतु परंतु के बीच भी इस श्रेय को फिदेल कास्त्रो से कोई नहीं छीन सकता कि उन्होंने बतिस्ता की तानाशाही में पिस रहे क्यूबा को अपने पूरे जीवट और संघर्ष के साथ मुक्त कराया। क्यूबा के आसमान में उम्मीदों का लाल सूरज टाँक दिया। ऐसा सूरज जो अमेरिका के पूँजीवादी आसमान को लगातार मुँह चिढ़ाता रहा। अपने लिए अपने हिसाब से नई सुबह की हर रोज़ नई इबारत लिखता रहा। शिक्षा और स्वास्थ्य में जिद और जुनून के चलते क्रांतिकारी परिवर्तन किए और सफलता भी हासिल की। शोषण से मुक्ति के लिए बंदूक उठाकर भिड़ जाने की यह वही ज़िद है, वो जुनून है जो भगतसिंह को खेत में जाकर बंदूक बो आने और असेम्बली में बम फोड़ने को प्रेरित करती है। या सुभाष बनकर फौज बनाने और जंग लड़ने का हौसला देती है। फिदेल तो इससे भी आगे गए। उन्होंने जंग भी जीती और परचम भी फहराया। 
 
क्रांति की एक सबसे बड़ी दिक्कत भी यही है कि क्रांति के बाद क्या? अगर 57 का गदर सफल हो जाता तो क्या? सचमुच सुभाष विजयी होते तो क्या? भगतसिंह नया भारत गढ़ते तो क्या? मिस्र ने होस्नी मुबारक का तो तख़्ता पलट दिया, फिर आगे क्या? क्रांति के इस अचीन्हे, अबूझे, रहस्यमयी और अनजान से रास्ते पर चल पड़ने और बस हक के लिए लड़-भिड़ने का भी अजीब रोमांच है। इसीलिए तो फिदेल के शिष्य चे गेवेरा क्रांति के उनसे कहीं बड़े प्रतीक बन गए। टी-शर्टों पर छा गए। हाथ में बंदूक और मुँह में सिगार से आगे उन्हें कुछ ज़्यादा परिभाषित नहीं करना है। वो तो क्यूबा की जीत के बाद अगली लड़ाई के लिए निकल पड़े और क्रांति के चरम पर विदा हो गए। ऐसे अबूझे से रोमांचित रहना क्रांति के नवांकुरों को ख़ूब रोमांचित करता है। इसीलिए वो बड़ा प्रतीक भी है। 
 
बहरहाल, फिदेल को क्रांति के अगले दिन होने वाली सुबह से भी आँख मिलानी थी। अधिक कठोर हो रहे अमेरिका से भी निपटना था, नए दोस्त तलाशने थे और जनता से ज़्यादा अपनी उम्मीदों पर भी खरा उतरना था। इस लड़ाई में सोवियत संघ बड़ा सहारा बना। फिलिस्तीन अच्छी दोस्ती रही। भारत से भी उनको ख़ास लगाव रहा। सोवियत संघ ढहने के बाद क्यूबा पर आए भीषण संकट के समय शकर और साबुन की खेप भारत से ही पहुँची थी। अमेरिका से वो लड़ते रहे पर बीमारी से हार गए। बीमारी से हारकर जब अपने भाई राउल कास्त्रो को उन्होंने सत्ता सौंपी तो उनके युग का अंत वहीं हो गया। क्यूबा और अमेरिका की बीच बढ़ती नजदीकी, जो शायद समय की माँग थी, वो भी देखकर ही उन्हें विदा होना था। हालाँकि वो तब भी कहते रहे कि उन्हें अमेरिका पर कभी भरोसा नहीं रहा। पर आज की दुनिया भरोसे से चल कहाँ रही है, वो तो जरूरत से चल रही है!! 
 
ख़ैर, ये भी विडंबना ही है कि जिस तानाशाही और अधिनायकवाद से कास्त्रो लड़कर सत्ता में आए, वो ख़ुद ही उसके शिकार हुए। भले ही इसके लिए उन्होंने क्यूबा के भले की आड़ ली हो। पर ये ऐसा स्टॉकहोम सिंड्रोम है जो होकर ही रहता है। विचारवाद और व्यक्तिवाद के इस घालमेल से बचना लगभग नामुमकिन सा नज़र आता है। उन्होंने भी विरोधियों को जेलों मे ठूँसा और विद्रोह की आवाज़ों को दबाया। पर अगर क्यूबा के वृहत्तर हिस्से में वो मसीहा हैं तो इसीलिए कि उन्होंने कई आवश्यक सुधारों को जबर्दस्ती लागू करवाया।
 
साम्यवाद, समाजवाद और अधिनायकवाद के इस लाल सितारे का अस्त एक ऐसे समय में हुआ है जब व्यक्तिवाद को सत्ता पर कब्ज़े के लिए बंदूक की बजाय मतपेटियों का सहारा मिल रहा है। व्यक्ति और विचार के बीच का अंतर निरंतर महीन हो रहा है। अमेरिका में एक नई तरह की लाल चादर चढ़ी है और इधर इसे लाल सितारे का अस्त हो जाना, प्रतीक रूप में ही सही, महत्वपूर्ण तो है ही। फिदेल कास्त्रो क्रांति से आगे क्या? के लिए हमेशा याद किए जाते रहेंगे। क्या अच्छा हो सकता है, नायकवादी निरंकुश सत्ता अच्छा करना चाहे तो कैसे और बुरा तो कैसे, दोनों ही उनकी नीतियों, भाषणों और सिद्दांतों के जरिए परिभाषित होते रहेंगे। क्रांति के बारूद से अपने नायकत्व की सिगार जलाने वाले फिदेल कास्त्रो को लाल सलाम!!

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