मोदी जनादेश का एक साल : चंद सवाल

प्रतीकों से आगे बढ़ना होगा
 
आज ही के दिन ठीक एक साल पहले यानि 16 मई 2014 को वो ऐतिहासिक जनादेश आया था। मतपेटियों से दनादन कमल के फूल खिल रहे थे। कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों के चेहरे मुरझा रहे थे। तीस साल तक गठबंधन सरकारों का राज और पीड़ा झेल रहे देश ने मानो एक राजनीतिक बगावत कर दी हो। जहाँ एक ओर राजनीतिक पंडित गठबंधन सरकारों को देश के भविष्य के साथ नत्थी कर चुके थे वहीं क्षेत्रीय दल ये मान चुके थे कि चंद सांसदों को लेकर केंद्र में ब्लैकमेलिंग की उनकी ताकत बढ़ती ही जाएगी। पर इन तय माने जा रहे समीकरणों को धता बताते हुए वो जनादेश आया जहाँ भाजपा का मिशन 272 का रथ, 10 कदम आगे जाते हुए 282 तक पहुँच गया। राजग को 336 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस महज 44 सीटों पर सिमट गई। 
 
बहरहाल, ये जनादेश अब इतिहास हो चुका है और आज यानि शनिवार 16 मई 2015 को इसे एक साल पूरा हो रहा है। सरकार को एक साल पूरा होने में अभी 10 रोज़ और बाकी हैं। शपथ 26 मई 2014 को हुई थी। पर जनादेश के इस एक साला पड़ाव पर पीछे घूमकर साल पर और इसी बहाने इस जनादेश के महानायक नरेन्द्र मोदी के सफर पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा।
 
ये सवाल भी अब बेमानी है कि मोदी नहीं भी होते तो भी क्या भाजपा को यों ऐसा जनादेश मिलता? चुनावों के लगभग सालभर पहले भाजपा की गोवा बैठक में आडवाणी की स्वाभाविक नाराज़ी और विरोध झेलते हुए भी जब नरेन्द्र मोदी को प्रचार प्रमुख बनाया गया, तबसे लेकर महाविजय तक उन्होंने सारे सूत्र अपने हाथ में ही रखे हैं, आज तक भी। प्रचार प्रमुख के बाद वो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बने और ख़ुद को पूरी तरह इस महाअभियान में झोंक दिया। तमाम झंझावातों से निकलकर जब 16 मई को परिणाम आ रहे थे तो मोदी गुजरात में अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर सुकून से मुस्करा रहे थे। वो प्रधानमंत्री बने और अमित शाह को भाजपा अध्यक्ष बनवाया। ये स्पष्ट हो गया कि वो अपना समय सत्ता संतुलन या अहं के तुष्टीकरण या विरोध के स्वरों को सुनने में नहीं गँवाना चाहते थे। उनको अपने इर्द-गिर्द सब अपने जैसा ही चाहिए था ताकि ध्यान वहीं लगे जहाँ वो लगाना चाहते हैं। 
 
परिणाम आने से लेकर अब तक नरेंद्र मोदी ने लगातार बहुत ध्यानपूर्वक बहुत अहम प्रतीकों को छुआ है और नारों को गढ़ा है। कुछेक प्रतीक अनायास भी छू लिए होंगे। पर अधिकांशत: नियोजित ही नज़र आते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। कोई और सोच लेता, कोई और कर लेता...। सवाल सिर्फ ये है कि क्या ये यात्रा केवल प्रतीकों को छूते हुए ही निकल जाएगी या मंज़िल को भी छू पाएगी? अपनी यात्रा में विरोध के जिन स्वरों को अनसुना और निराशा के जिन चिन्हों को अनदेखा करते हुए प्रधानमंत्री आगे बढ़ रहे हैं क्या वो ही अधिक कर्कश होकर उन्हें सुनने पर विवश कर देंगे या उनकी राह में आगे चलकर स्पीड-ब्रेकर बनकर पड़े मिलेंगे? या इसके बावजूद भी काफिला मंज़िल तक पहुँच ही जाएगा?
 
पहले कुछ अहम प्रतीकों को फिर से याद कर लेते हैं –
 
1. माँ के चरणों में– जब देश विजयोत्सव मना रहा था तो मोदी ढोल पीटने की बजाय माँ के आँचल में सुकून पा रहे थे। 
2. संसद की देहरी पर माथा टेका– नरेन्द्र मोदी पहली बार सांसद भी बने और वो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी। संसद को लोकतंत्र का मंदिर तो जुमलों में कहा जाता रहा है पर ऐसे में संसद में अपने प्रथम प्रवेश के दौरान संसद की देहरी पर उनके द्वारा माथा टेकना देश के दिल को छू गया। 
3. भाव विह्वल मोदी- भाजपा संसदीय दल का नेता चुने जाते समय आडवाणी जी की बात के प्रत्युत्तर में अपनी बात कहते हुए नरेन्द्र मोदी भाव विह्वल हो गए। ये कहते हुए कि वो कैसे पार्टी पर या आडवाणी जी पर कोई उपकार कर सकते हैं? ये भी अपने आप में ख़ास प्रतीक था। 
4. राजघाट पर– शपथ लेने से पहले मोदी राजघाट पर महात्मा गाँधी की समाधि पर श्रध्दासुमन अर्पित करने पहुँचे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, धार्मिक कट्टरता और गुजरात दंगे के आरोपों की पृष्ठभूमि के बीच ये एक और अहम प्रतीक था जिसे उन्होंने छुआ। 
 
5. सार्क देशों को निमंत्रण – अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के सभी राष्ट्राध्यक्षों को न्योता देना एक बड़ा प्रतीक भी था और कूटनीतिक चाल भी। नवाज शरीफ समेत अन्य सभी की उपस्थिति ने इसे सार्थक भी किया।
6. ब्रिक्स देश– प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिक्स की अहमियत भाँपते हुए ना केवल वहाँ अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाई बल्कि ब्रिक्स बैंक के गठन की लंबित पड़ी प्रक्रिया को भी गति दी। 
7. नेपाल-भूटान - प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल और भूटान की यात्रा करके भौगोलिक पड़ोसियों को दिल के भी करीब लाने की कोशिश की।
8. अमेरिका– प्रधानमंत्री मोदी ने ना केवल अमेरिका की ऐतिहासिक यात्रा की, उस अमेरिका की जिसने उन्हें वीसा देने से इंकार कर दिया था, वरन राष्ट्रपति ओबामा को 26 जनवरी के समारोह में मुख्य अतिथि बनाकर एक और ख़ास प्रतीक को छुआ।
9. चीन– चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद के बाद भी उन्होंने चीन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और चीन के राष्ट्रपत्ति शी जिन पिंग का अहमदाबाद में भव्य स्वागत किया। हाल ही में चीन जाकर वहाँ चीनी राष्ट्रपति के गृहनगर शियान में वक्त बिताया। चीन हालाँकि अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा पर इसके बाद भी अपनी बात रखते हुए हल ढ़ूँढने की कोशिश है प्रधानमंत्री की। साथ ही और एक प्रतीक छूने की भी। 
10. जापान- प्रधानमंत्री मोदी जापान के ऐतिहासिक और सामरिक महत्व को समझते हुए, उसको पूरी तवज्जो देते हुए उस प्रतीक को भी छू आए।
 
11. नेताजी सुभाष चंद्र बोस - प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस द्वारा बहुत हद तक उपेक्षित किए जाते रहे नेताजी के प्रतीक को भी बखूबी छुआ। उन्होंने अपनी जापान और जर्मनी की यात्रा के दौरान नेताजी के करीबियों से मुलाकात की। इसी बीच नेहरू-इंदिरा शासन काल में नेताजी के घर की जासूसी का राज भी सामने आया।
12. योग की शक्ति– भारत की इस प्राचीन विधा को अमेरिका के मार्केटिंग गुरुओं के चंगुल से निकालकर फिर भारत के पाले में लाने की ख़ास ज़रूरत थी। संयुक्त राष्ट्र के अपने उद्बोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने ना केवल इसका जिक्र किया बल्कि 21 जून को विश्व योग दिवस की घोषणा भी करवा ली। 
13. मन की बात– रेडियो से जुड़कर ना केवल देश को जोड़ा बल्कि एक भुला दिए गए माध्यम को भी जिला दिया। इस हद तक की टीवी वाले भी रेडियो सुनाने पर मजबूर हो गए हैं।
14. ऑपरेशन राहत और ऑपरेशन मैत्री - यमन और नेपाल में विपदा में फंसे भारतीयों को निकालकर पूरी दुनिया में भारत के प्रति माहौल को बदलने में मदद की।
 
नारे और उनके प्रतीक –
अपनी शुरुआत से ही प्रधानमंत्री मोदी ने कई अहम नारों को गढ़ा और उनके ज़रिए कई प्रतीकों को छुआ। ये नारे ज़मीन पर कितना कामयाब हो पाए ये एक बहुत बड़ा सवाल है। हालाँकि एक साल कोई बहुत बड़ा वक्फा नहीं है पर फिर भी अधिकांश नारे प्रतीकों से परे नहीं जा पाए हैं और इसके लिए मोदी के अलावा टीम मोदी (??)  को ख़ासी मेहनत करनी होगी।
 
1. स्वच्छ भारत अभियान– गंदले और मैले भारत को लेकर मोदी की पीड़ा भी जायज़ है और इसको दी गई अहमियत भी पर ज़मीन पर ये नारा बदबू मारते कूड़े के ढ़ेरों के नीचे ही दबा पड़ा है। इसके लिए जोड़ी गई बड़ी हस्तियाँ भी बस फोटो खिंचवाने तक ही सीमित रह गईं। 
2. मेक इन इंडिया– ये बड़ा और महत्वाकांक्षी नारा है। सेवा क्षेत्र के जरिए विकास दर को आगे बढ़ाने की सोच से ये मेल नहीं खाता। दम तोड़ता उत्पाद क्षेत्र इस नारे में अपनी ऑक्सीजन नहीं ढूँढ़ पा रहा।
3. डिजीटल इंडिया –इस दिशा में देश यों भी अपने तईं कुछ आगे बढ़ चुका था पर इसके महास्वरूप को साकार करने के लिए ज़मीन पर जिस तेज़ी से काम होने की ज़रूरत है वो दिखाई नहीं पड़ रही।
अगले पन्ने पर, गलतिया जो पड़ी भारी... 

नारे तो और भी बहुत हैं जो उन्होंने देश में भी दिए हैं और विदेश में भी। पर ज़मीन पर उनकी स्थिति इन तीन बड़े नारों से भी ख़राब है। जैसे गंगा की सफाई का प्रण। 
ग़लतियाँ जो भारी पड़ रही हैं –
 
1. लखटकिया सूट– पता नहीं किसने सलाह दी थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से चाय पर चर्चा के दौरान वो बहुचर्चित सूट पहना जाए। इसे पहनने की सलाह और ख़्वाहिश के पीछे के मानस को पढ़ पाने के बाद भी ये एक बड़ी और महँगी गलती थी। 
 
2. भूमि अधिग्रहण कानून –इसे लेकर भीतर और बाहर विरोध जारी है। भाजपा के भीतर दबे स्वर में और बाहर खुलेआम। कांग्रेस के लिए तो इस कानून का विरोध तिनके का सहारा ही बन गया है। पता नहीं इसे अध्यादेश के रूप में और यों हड़बड़ी में लाने की क्या जल्दी और मजबूरी थी पर ये गले की फाँस तो बन ही गया है। 
 
3. कट्टरवाद– गिरिराजसिंह, साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ और निरंजन ज्योति जैसों के बोल वचन विकास के सुरों को बेसुरा कर पूरी सरगम बिगाड़ रहे हैं। इनके तार नहीं कसे गए तो पूरा माँजना भी बिगाड़ सकते हैं।
 
4. सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह –इनको मुख्यधारा का मूकदर्शक बनाना लंबे समय में भारी पड़ सकता है। 
 
5. दिल्ली दूर है– केंद्र में इतनी बड़ी महाविजय के बाद भी दिल्ली चुनाव में मुँह की खाना, वो दाग है जो मोदी-शाह लाख चाह के भी छुपा नहीं पाएँगे। उनकी नाक के नीचे 67 सीट वाली आम आदमी पार्टी की सरकार (चाहे जैसे भी) चल रही है। केजरीवाल पर व्यक्तिगत हमले महँगे पड़ गए। 
 
अंतत:
इन सब बिंदुओं और आकलनों के बावजूद इसमें कोई शक नहीं है कि अरसे बाद देश को एक ऐसा नेतृत्व मिला है जो मुखर है। किस मौके पर क्या बोलना ये जानता है। प्रेरक है। सभाओं में जोश भरने और तालियाँ बजवाने में सक्षम है। कई अहम प्रतीकों को छुआ है। उम्मीद जगाई है। .... और अगर एक साल का हासिल यही है तो माहौल बनाने में कुछ ज़्यादा समय लग गया। अब “काम” के लिए कम समय है। तमाम नारों को पूरा करने के लिए चार ही साल बचे हैं। ये समय बहुत नज़र आते हुए भी पर्याप्त नहीं है। अपेक्षाओं का बोझ बहुत ज़्यादा है। 
 
इस सरकार के लिए ये साबित करना कि वो कॉर्पोरेट की नहीं किसान की सरकार है, एक बड़ी चुनौती है। ऐसा नीतिगत फैसलों और ठोस ज़मीनी कार्रवाई से ही संभव है। और उसके लिए ज़रूरत है प्रधानमंत्री मोदी के साथ ही ‘टीम मोदी’ की।

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