खेत की तरफ चेहरा और निगाहें कॉर्पोरेट पर

एक बार मैंने संपादकों के सम्मेलन में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया से पूछा था कि जिस देश की 80 प्रतिशत आबादी गाँवों में बसती हो और खेती जहाँ मुख्य व्यवसाय हो वहाँ खेती-किसानी प्राथमिकता में इतनी पीछे क्यों है? उनका जवाब चौंकाने वाला था– खेती में 2-3 प्रतिशत की दर से भी विकास हो जाए तो बहुत है, 8 प्रतिशत की विकास दर के लिए तो सर्विस सेक्टर और बाकी क्षेत्रों पर ही ध्यान देना होगा। मुझे लगा कि भारत एक कृषि प्रधान देश है इस वाक्य को पाठ्य पुस्तकों से हटा लेना चाहिए। अपने पिछले बजट में इसी सरकार ने जो बजट पेश किया उसने भी 'सूट-बूट' वाली सरकार के नारे को मजबूत किया। 
डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया के नारों के बीच खेती की आवाज़ दबती हुई ही दिखाई दी है। अब इस साल के बजट में सरकार का चेहरा गाँव की तरफ घूमा हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन गाँव और खेत की तरफ मुँह होने का मतलब ये भी नहीं है कि कॉर्पोरेट और सूट-बूट की तरफ पीठ कर ली है बल्कि आप गौर से देखेंगे तो निगाहें कॉर्पोरेट पर बनी हुई हैं। 
 
अभी बहुत से लोग ये ही कयास लगा रहे हैं कि ये बजट अच्छा है या बुरा। जो 88 हज़ार 500 करोड़ रुपए ग्रामीण भारत के विकास के लिए रखे गए हैं वो तो यही कहते हैं कि गाँव के अच्छे दिन आने वाले हैं। शर्त ये है कि ये पैसा उस तरीके से खर्च भी हो और उन लोगों तक पहुँचे जहाँ के लिए ये तय है। इसके अलावा छोटे और मझोले उद्योगों के लिए भी कई प्रावधान हैं।
 
मनरेगा पर फिर 39 हजार करोड़ खर्च करना बताता है कि गाँवों में खेती से लोगों को जोड़े रखने या रोजगार पैदा करने की कोई नई महत्वकांक्षी योजना इस सरकार के पास नहीं है। वो संप्रग की ही योजना पर निर्भर है। मनरेगा के घोटालों और गाँवों-खेतों की हालत को गौर से देखें तो समझ में आ जाएगा कि इससे कहीं ज़्यादा गंभीर और ठोस उपायों की ज़रूरत है। उससे आगे मध्यवर्ग और बड़े उद्योगों के लिए इसमें कई प्रावधान किए गए हैं।
 
आम आदमी को केवल किराए के घर और कर्ज़ के मामले में कुछ राहत मिली है पर मध्यवर्ग के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए ये काफी नहीं है। मध्यवर्ग जिन मुश्किलों में गुज़ारा कर रहा है, वो आँकड़ों की उलझन से नहीं उस जीवन को जीकर ही समझा जा सकता है। कई लोग कहते हैं कि केवल इनकम टैक्स के बारे में सोचना स्वार्थी हो जाना है। पर उनकी तो ज़िंदगी इसी पर चलती है!! सब मिलाकर 40 प्रतिशत से ज़्यादा पैसा उसका टैक्स में जाता है। ढाई लाख रुपए तो उसकी बुनियादी जरूरतों पर यों ही खर्च हो जाते हैं। फिर उसकी एक परेशानी ये भी है की दूसरों के द्वारा टैक्स चोरी को वो क्यों भुगते? ईपीएफ और पीपीएफ पर टैक्स लगाना भी नौकरीपेशा के लिए बड़ा झटका बनकर आया है।
 
बहरहाल, इस सरकार के लिए तेल के दाम वरदान बनकर आए हैं। अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों मे तेल के दामों में कमी ने वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाई है। वो बचत और वो पैसा कैसे देश को तरक्की की राह पर तेज़ी से ले जाए वो बड़ा सवाल है। 
 
आम आदमी इस आँकड़ेबाज़ी को ज़्यादा नहीं समझता। देश के विकास में उसे  योगदान फिर भी देना है। वो लंबे और श्रमसाध्य मार्ग से ही संभव है। अगर सरकार देश का भरोसा जीत ले तो लोग तैयार भी हैं पर सवाल ये है कि अगर घोटाले, अक्षमता और नाकामियों की भरपाई आप जनता की गाढ़े पसीने की कमाई से करना चाहोगे तो नहीं चल पाएगा।
 
दुनिया की मंदी के बीच भी अगर भारत मंदा नहीं पड़ा है तो उसकी ताकत वो किसान और वो मध्यवर्ग ही है जो जी-तोड़ मेहनत करता है और जितना संभव है बचाता है। वो महज योजनाओं से नहीं वरन ईमानदार कार्यान्वयन से ही ख़ुश होगा। 

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