-जयदीप कर्णिक
लोग धरती को सींचने के नए तरीके ढ़ूँढ़ रहे थे .... और हमने बादलों पर पैर रक्खे हुए थे। हम आसमान में खेती कर रहे थे…..सब हँस भी रहे थे..... यहाँ धरती सोना उगल रही है और ये वहाँ आसमान में सपनों की खेती कर रहे हैं!!! .....सच, सपना ही तो था .... सचमुच का सपना ... जागती आँखों से देखा एक ख़ूबसूरत ख़्वाब ..... एक तसव्वुर ... एक ख़याल कि अपनी भाषाओं का नाम भी इस इंटरनेट के आसमान पर लिखा होगा ... सुनहरे हर्फों में.. अ, आ, ई से सजा हुआ...।
तब तकनीक और इंटरनेट की दुनिया में अपनी वर्णमाला और अक्षरों को बा-आसानी देख पाना एक ख़्वाब ही था। उन टूटते-हाँफते हर्फों को देखकर ये लगता था कि ये दुनिया अंग्रेज़ी के लिए ही बनी है। अपनी भाषा में देखे हुए ख़्वाब अब हमें इंटरनेट पर तो अंग्रेज़ी में ही समझने-देखने पड़ेंगे। ... पर कुछ जुनूनी थे जो अपना की-बोर्ड और माउस लेकर अपने सपनों को अपनी ही भाषा में साकार करने के लिए बादलों पर जा चढ़े थे... उनकी मेहनत से उन्होंने बादलों में अपने सपनों के बीज भी बो दिए... दिक्कतें भी कई आईं ... तेज़ हवाओं ने बादलों समेत उन बीजों को उड़ा ले जाने की कोशिश भी की..... पर उन बीजों में इरादों का फौलाद भरा था ..... इसीलिए तो वो सपना आज पूरे 18 साल का लहलहाता पेड़ बनकर खड़ा है। शान और स्वाभिमान के साथ... ।