दरअसल, इस वायरस से लड़ने के लिए 'हमारी रणनीति' उसी दिन तय हो गई थी, जब हमने अपने घरों की छतों पर खड़े होकर थालियां बजाई थीं, सड़कों पर जुलूस बनाकर ढोल पीटते हुए, चिकित्साकर्मियों पर थूकते और पत्थर बरसाकर आधुनिक भारत में अपने 'आदिम' होने के प्रमाण दिए थे। उसके बाद चुनावी रैलियों, उत्सवों की आड़ में उमड़ती भीड़ को देखकर लगता है कि शायद अब तक हम इस वायरस से लड़ने के काबिल नहीं हो सके हैं, तभी वायरस के एक नए स्ट्रेन ने एक बार फिर से पलटकर वार किया है, डर है कि अब उसकी इस चाल में भी कहीं हम फिर से मात न खा बैठें।