आखिरी जुमा, माहे रमजान का खास दिन-27

आज सत्ताईसवाँ रोजा और आखिरी जुमा (शुक्रवार) साथ-साथ हैं। कल छब्बीसवाँ रोजा और शबे-क़द्र (सत्ताईसवीं रात) साथ-साथ थे। यहाँ यह बात जानना जरूरी है कि छब्बीसवाँ रोजा जिस दिन होगा, उसी शाम गुरुबे-आफ़ताब के बाद (सूर्यास्त के पश्चात) सत्ताईसवीं रात यानी शबे-कद्र भी शुरू हो जाएगी।

छब्बीसवें रोजे के साथ ताक रात (विषम संख्या वाली रात्रि) यानी शबे-कद्र आएगी ही। लेकिन सत्ताईसवाँ रोजा जिस दिन हो उस दिन आखिरी जुमा (शुक्रवार) भी हो, यह जरूरी नहीं।

इसे यों समझें। माहे-रमजान में सत्ताईसवाँ रोजा होगा ही। रमजान माह में आखिरी जुमा (शुक्रवार) भी होगा ही, यह बात भी लाज़िम है। लेकिन सत्ताईसवाँ रोजा और आखिरी जुमा हमेशा एक साथ, एक ही दिन हो यह बात लाजिम नहीं। मतलब यह हुआ कि सत्ताईसवाँ रोजा तो वैसे भी दोजख से निजात के अशरे (नर्क से मुक्ति के कालखंड) में अपनी अहमियत रखता ही है।

आखिरी जुमा के साथ सत्ताईसवाँ रोजा और भी ज्यादा फजीलत (महिमा) और अजमत (गरिमा) वाला हो गया है। सत्ताईसवाँ रोजा दरअसल रोजादार को दोहरे सवाब का हकदार बना रहा है।

अब यह भी समझना जरूरी है कि आखिरी जुमा क्या अहमियत रखता है? जवाब यह है कि जिस तरह यहूदी मजहब में सनीचर (शनिवार) को और ईसाई मजहब में इतवार (रविवार) को इबादत के लिए हफ़्ते का खास दिन माना जाता है। वैसे ही इस्लाम मजहब में जुमा (शुक्रवार) इबादत और इज्तिमाई नमाज (सामूहिक प्रार्थना के लिए) खास दिन माना जाता है।
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हदीस-शरीफ में है कि जुमा के दिन ही हजरत आदम (अलैहिस्सलाम) को जन्नत से दुनिया में भेजा गया। उन्हें वापस जन्नात भी जुमा के दिन मिली। उनकी तौबा (प्रायश्चित) भी जुमा के दिन अल्लाह ने कुबूल की और सबसे बड़ी बात तो यह कि हजरत मोहम्मद (सल्ल.) की जिंदगी का आखिरी हज जुमे के दिन ही था। कुरआने-पाक में सूरह 'जुमा' नाजिल की गई।

आखिरी जुमा, माहे-रमजान की रुखसत का पैगाम है। कुल मिलाकर आखिरी जुमा यानी यौमे-खास रमजान की विदाई का अहसास।

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