भगवान विष्णु के शुभ मंत्र, स्तोत्र, चालीसा, आरती और स्तुति एक साथ

देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु का पूजन-अर्चन स्तुति, चालीसा, मंत्र, आरती आदि से उन्हें प्रसन्न किया जाता हैं। यहां पढ़ें खास जानकारी एक साथ- 
 
भगवान विष्णु के शुभ मंत्र-Vishnu Mantra 
 
देव प्रबोधन मंत्र- 
ब्रह्मेन्द्ररुदाग्नि कुबेर सूर्यसोमादिभिर्वन्दित वंदनीय,
बुध्यस्य देवेश जगन्निवास मंत्र प्रभावेण सुखेन देव।
 
देवोत्थान स्तुति मंत्र-
उदितष्ठोतिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते,
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्‌।
उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव॥
 
विशेष मंत्र- 
- ॐ विष्णवे नम:
- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:
- ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि।
- ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।
- श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेवाय।।

विष्णु चालीसा-Vishnu Chalisa
 
दोहा
 
विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय।
कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय।
 
चौपाई
 
नमो विष्णु भगवान खरारी।
कष्ट नशावन अखिल बिहारी॥
 
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी।
त्रिभुवन फैल रही उजियारी॥
 
सुन्दर रूप मनोहर सूरत।
सरल स्वभाव मोहनी मूरत॥
 
तन पर पीतांबर अति सोहत।
बैजन्ती माला मन मोहत॥
 
शंख चक्र कर गदा बिराजे।
देखत दैत्य असुर दल भाजे॥
 
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे।
काम क्रोध मद लोभ न छाजे॥
 
संतभक्त सज्जन मनरंजन।
दनुज असुर दुष्टन दल गंजन॥
 
सुख उपजाय कष्ट सब भंजन।
दोष मिटाय करत जन सज्जन॥
 
पाप काट भव सिंधु उतारण।
कष्ट नाशकर भक्त उबारण॥
 
करत अनेक रूप प्रभु धारण।
केवल आप भक्ति के कारण॥
 
धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा।
तब तुम रूप राम का धारा॥
 
भार उतार असुर दल मारा।
रावण आदिक को संहारा॥
 
आप वराह रूप बनाया।
हरण्याक्ष को मार गिराया॥
 
धर मत्स्य तन सिंधु बनाया।
चौदह रतनन को निकलाया॥
 
अमिलख असुरन द्वंद मचाया।
रूप मोहनी आप दिखाया॥
 
देवन को अमृत पान कराया।
असुरन को छवि से बहलाया॥
 
कूर्म रूप धर सिंधु मझाया।
मंद्राचल गिरि तुरत उठाया॥
 
शंकर का तुम फन्द छुड़ाया।
भस्मासुर को रूप दिखाया॥
 
वेदन को जब असुर डुबाया।
कर प्रबंध उन्हें ढूंढवाया॥
 
मोहित बनकर खलहि नचाया।
उसही कर से भस्म कराया॥
 
असुर जलंधर अति बलदाई।
शंकर से उन कीन्ह लडाई॥
 
हार पार शिव सकल बनाई।
कीन सती से छल खल जाई॥
 
सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी।
बतलाई सब विपत कहानी॥
 
तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी।
वृन्दा की सब सुरति भुलानी॥
 
देखत तीन दनुज शैतानी।
वृन्दा आय तुम्हें लपटानी॥
 
हो स्पर्श धर्म क्षति मानी।
हना असुर उर शिव शैतानी॥
 
तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे।
हिरणाकुश आदिक खल मारे॥
 
गणिका और अजामिल तारे।
बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे॥
 
हरहु सकल संताप हमारे।
कृपा करहु हरि सिरजन हारे॥
 
देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे।
दीन बन्धु भक्तन हितकारे॥
 
चहत आपका सेवक दर्शन।
करहु दया अपनी मधुसूदन॥
 
जानूं नहीं योग्य जप पूजन।
होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन॥
 
शीलदया सन्तोष सुलक्षण।
विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण॥
 
करहुं आपका किस विधि पूजन।
कुमति विलोक होत दुख भीषण॥
 
करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण।
कौन भांति मैं करहु समर्पण॥
 
सुर मुनि करत सदा सेवकाई।
हर्षित रहत परम गति पाई॥
 
दीन दुखिन पर सदा सहाई।
निज जन जान लेव अपनाई॥
 
पाप दोष संताप नशाओ।
भव-बंधन से मुक्त कराओ॥
 
सुख संपत्ति दे सुख उपजाओ।
निज चरनन का दास बनाओ॥
 
निगम सदा ये विनय सुनावै।
पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै॥

विष्णु जी की आरती-Vishnu jee ki aarti 
 
ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।
भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे॥
 
जो ध्यावै फल पावै, दुख बिनसे मन का।
सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय...॥
 
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी।
तुम बिनु और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ ॐ जय...॥
 
तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥
पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ॐ जय...॥
 
तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय...॥
 
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय! तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय...॥
 
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय...॥
 
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय...॥
 
तन-मन-धन और संपत्ति, सब कुछ है तेरा।
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ ॐ जय...॥
 
जगदीश्वरजी की आरती जो कोई नर गावे।
कहत शिवानंद स्वामी, मनवांछित फल पावे॥ ॐ जय...॥

विष्णु स्तुति-Shree Vishnu Stuti
 
शान्ताकारं भुजंगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्ण शुभांगम्।
लक्ष्मीकांत कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्व लौकेक नाथम्।।
 
यं ब्रह्मा वरुणैन्द्रु रुद्रमरुत: स्तुन्वानि दिव्यै स्तवैवेदे:।
सांग पदक्रमोपनिषदै गार्यन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यति यं योगिनो
यस्यातं न विदु: सुरासुरगणा दैवाय तस्मै नम:।।

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