हिन्दी कविता: वह सुहानी शाम

निशा माथुर 
 
जिंदगी की जद्दोजहद,
अपने हिस्से का आसमां तलाशती हूं, 
मायूस-सी मेरी सूरत, सांवरे की वो भीगी पलकें संवारती हूं ।
मेरे मुकाम के लिए जो फना हो जाए, वो मुकद्दर तलाशती हूं,  
घटाओं- सी घनेरी इन जुल्फों की फिर बिजलियां संवारती हूं ।
वो सुहानी शाम, सुरमयी, सुरमयी...
मैं अपनी मांग सजा लेती हूं ।।

 

 
काले बादलों में उमड़ती-छिपती,
रौशनी की किरण तलाशती हूं
 
मंदिर में उस संगमरमर से, मैं उसके वजूद का हिसाब मांगती हूं।
मेरी धड़कन से निकली दुआओं, आरजुओं की रवानगी मांगती हूं, 
हताश, निराश भोले मन संग हंसती कुछ किरदार निभा लेती हूं।
वो सुहानी शाम, सुरमयी, सुरमयी...
मैं अपनी मांग सजा लेती हूं ।।

दिले-नादान फिर मेरी सिसकी ना गूंजे,
चुप का पहरा लगा देती हूं, 
मन शब्दों की मुस्कान से भीगे-भीगे, अनकहे अलफाज सजा लेती हूं ।
पलछिन-पलछिन खुद से खुद पर इतना क्यूं यकीन बना लेती हूं, 
जिस राह मुड़कर कभी ना जाना, ना देखा, वो निशान मिटा देती हूं ।
वो सुहानी शाम, सुरमयी, सुरमयी...
मैं अपनी मांग सजा लेती हूं ।।
 
दिन-दोपहर, शब या रात, बादल,
अंबर चाहे बरसात, निभा लेती हूं, 
मेरी सादगी, बंदगी, मेरी कहानी में ढल-ढल कर निखर जाती हूं ।
चार कंधों की यारी और ये दुनिया सारी, आंखें नम करा लेती हूं, 
कसक है, जिंदा रहूं मौत के बाद मैं ! ऐसी जिंदगी तलाशती हूं ।
वो सुहानी शाम, सुरमयी, सुरमयी...
मैं अपनी मांग सजा लेती हूं ।।

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