मोहनदास से महात्‍मा तक...

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मोहनदास करमचंद गाँधी- भारत के राष्‍ट्रपिता, अहिंसा के पुजारी, महात्‍मा, बापू...

गाँधीजी के सम्‍मान में जितनी चाहें उतनी उपमाएँ इस क्रम में जोड़ सकते हैं। गाँधी कुछ लोगों के लिए एक महापुरुष हैं, जिन्‍होंने देश को आजादी दिलाई, कुछ के लिए गाँधी एक विचारधारा का नाम है, एक ऐसी विचारधारा जो हमेशा, हर स्‍थान पर प्रासंगिक रहेगी।

गाँधीजी को लेकर इन दिनों युवा पीढ़ी की जुबाँ पर एक ही शगूफा है- बंदे में था दम।

वाकई महात्‍मा गाँधी के सिद्धांतों में बहुत दम है। तभी तो पूर्ण व्‍यावसायिकता के इस दौर में एक बार फिर जमाना गाँधीगिरी की ओर लौट रहा है। गाँधीवाद को भले ही गाँधीगिरी का नाम दे दिया गया हो, लेकिन इस नए शब्‍द के मूल में भी गाँधी की विचारधारा ही है।

दुनिया को निडरता और सत्‍य का संदेश देने वाले बापू ने भी युवावस्‍था में भय और असत्‍य का सामना किया है। अपने व्‍यक्तित्‍व की कमियों को भी उन्‍होंने बड़ी सहजता से स्‍वीकार किया। अपनी आत्‍मकथा ‘सत्‍य के मेरे प्रयोग’ में उन्‍होंने कई बातें खुलकर बताई हैं। मोहनदास से महात्मा बनने के सफर में किस तरह भय और असत्‍य से उनका सामना होता रहा, आइए देखते हैं...
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असत्‍यरूपी विष
जिस समय गाँधीजी विलायत पढ़ने के लिए गए थे, उस समय बहुत कम भारतीय ही उच्‍च शिक्षा के लिए विलायत जाते थे। विलायत जाने के बाद आमतौर पर विवाहित भारतीय युवा भी स्‍वयं को अविवाहित ही बताते थे। न जाने क्‍यूँ? लेकिन बापू ने विलायत जाने के बाद स्‍वयं को अविवाहित ही बताया। हालाँकि स्‍वयं को अविवाहित बताने के पीछे न तो कोई गलत इरादा था और न ही कोई अनैतिक मंशा।

कैसे बताया सच
एक विधवा महिला से गाँधीजी की मित्रता थी, जो उन्‍हें हर रविवार को अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित करती थी। वह महिला उनका शर्मीलापन कम करने का प्रयास कर रही थी और अपनी जान-पहचान वाली महिलाओं से गाँधीजी की मित्रता करवा रही थी।

इसी बीच एक दिन बापू ने उस महिला मित्र को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्‍होंने यह बताते हुए कि मैं विवाहित हूँ और एक पुत्र का पिता हूँ, अपने झूठ के लिए माफी माँगी। इस पत्र के जवाब में उस महिला का भी पत्र आया, जिसमें उसने इस बात पर खुशी जाहिर की कि बापू ने उसके सामने सत्‍य को स्‍वीकारा और अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी। उन दोनों की मित्रता इस सत्‍य के उजागर होने के बाद भी यथावत बनी रही।
अपनी आत्‍मकथा में उन्‍होंने इस बात का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया कि उस समय वे बेहद निराश और भयभीत थे।


लेकिन आगे क्‍या...
10 जून 1891 को परीक्षाएँ पास करने के बाद बापू बैरिस्‍टर बन गए। 11 जून को उन्‍होंने ढाई शिलिंग देकर इंग्‍लैंड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज करवा लिया और 12 जून को वे हिन्दुस्‍तान के लिए रवाना हुए। अपनी आत्‍मकथा में उन्‍होंने इस बात का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया कि उस समय वे बेहद निराश और भयभीत थे। उन्‍हें भविष्‍य अनिश्चित लग रहा था क्योंकि उनके हृदय में व्‍याप्‍त सत्‍य ने उन्‍हें इस बात का एहसास करवा दिया था कि वे कानून तो पढ़ चुके हैं पर उन्‍होंने ऐसी कोई भी चीज नहीं सीखी, जिससे वकालत कर सकें।

नरमक्‍खी की उपमा...
विलायत के अन्‍नाहारी मण्‍डल की कार्यकारिणी में सदस्‍य के रूप में बापू को चुन लिया गया। वे कार्यकारिणी की हर बैठक में शामिल भी होने लगे। बैठक में भाग लेने के बावजूद वे कभी कुछ बोलते नहीं थे। इस पर अन्‍नमंडल के डॉं. ओल्‍डफिल्‍ड नामक सदस्‍य ने उन्‍हें नरमक्‍खी की उपमा देकर उन पर कटाक्ष किया। इस घटना के संदर्भ में बापू ने अपनी मन:स्थि‍ति बयान करते हुए लिखा है, ‘मुझे सब सदस्‍य अपने से अधिक जानकार प्रतीत होते थे। फिर किसी भी विषय में बोलने की जरूरत मालूम होती और मैं कुछ कहने की हिम्‍मत करने जाता, इतने में दूसरा विषय छिड़ जाता था।’

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जब उठाई आवाज...
अन्‍नाहारी मण्‍डल के सभापति श्री हिल्‍स समिति के एक अन्‍य सदस्‍य डॉ. एलिन्‍सन को समिति से हटाने का प्रस्‍ताव लेकर आए। समिति से हटाने की वजह यह थी कि डॉ. एलिन्‍सन कृत्रिम उपायों से संतानोत्‍पत्ति को रोकने के तरीकों का मजदूर वर्ग में प्रचार करते थे। हालाँकि बापू को डॉ. एलिन्‍सन के इस कार्य से कोई लगाव न था। अन्‍नाहार संवर्धक मंडल का उद्देश्‍य केवल अन्‍नाहार का प्रचार करना था। किसी व्‍यक्ति को इस मंडल से केवल इसलिए निकाल देना कि वह शुद्ध नीति का पालन नहीं करता, यह बात बापू को न्‍यायोचित नहीं लगी।
देखने-सुनने में यह बेहद मामूली घटनाएँ हैं, लेकिन इन मामूली घटनाओं पर हम किस तरह की प्रतिक्रियाएँ देते हैं। इससे हमारा चरित्र, व्‍यक्तित्‍व और हमारी नियति तय होती है।


उन्‍होंने इस संबंध में एक लेख लिखकर सभापति को दे दिया। बापू के उस लेख को सभा में किसी और ने पढ़कर सुनाया। आखिरकार सभा में डॉ. एलिन्‍सन का पक्ष हार गया। इस घटना के बारे में बापू ने लिखा है, ‘इस पहले युद्ध में मैं अपराजित रहा, पर चूँकि मैं उस पक्ष को सच्‍चा मानता था, इसलिए मुझे पूरा संतोष रहा।'

देखने-सुनने में यह बेहद मामूली घटनाएँ हैं, लेकिन इन मामूली घटनाओं पर हम किस तरह की प्रतिक्रियाएँ देते हैं। इससे हमारा चरित्र, व्‍यक्तित्‍व और हमारी नियति तय होती है। हर छोटी-से-छोटी घटना में बापू सत्‍य का दामन थामते रहे। सत्‍य की शक्ति उन्‍हें निर्भय बनाती रही।

यह उस सत्‍य का ही प्रताप है कि घुटने तक खादी की छोटी-सी धोती पहनने वाले व्‍यक्ति का नाम इतिहास में अमर और हर काल में प्रासंगिक रहेगा। उनका सत्‍य उन्‍हें किताबों के पन्‍नों में गुम नहीं होने देगा। जो भी उनके विचारों को पढ़ेगा, उसके विचारों और उसके व्‍यवहार में बापू का एक अंश अवश्‍य जीवित रहेगा।

आप चाहें तो इसे ‘कैमिकल लोचा’ नाम दे सकते हैं, लेकिन गाँधी और उनके विचार हमेशा मानवता को सत्‍य की राह दिखाते रहेंगे।