गणेश उपासना में दूर्वा का महत्व

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- बेनी रघुवंशी

दूर्वा : गणेश पूजन में दूर्वा का विशेष महत्व है।

व्युत्पत्ति व अर्थ : दूः+अवम्‌, इन शब्दों से दूर्वा शब्द बना है। 'दूः' यानी दूरस्थ व 'अवम्‌' यानी वह जो पास लाता है। दूर्वा वह है, जो गणेश के दूरस्थ पवित्रकों को पास लाती है। गणपति को अर्पित की जाने वाली दूर्वा कोमल होनी चाहिए। ऐसी दूर्वा को बालतृणम्‌ कहते हैं। सूख जाने पर यह आम घास जैसी हो जाती है।

दूर्वा की पत्तियाँ विषम संख्या में (जैसे 3, 5, 7) अर्पित करनी चाहिए।

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पूर्वकाल में गणपति की मूर्ति की ऊँचाई लगभग एक मीटर होती थी, इसलिए समिधा की लंबाई जितनी लंबी दूर्वा अर्पण करते थे। मूर्ति यदि समिधा जितनी लंबी हो, तो लघु आकार की दूर्वा अर्पण करें; परंतु मूर्ति बहुत बड़ी हो, तो समिधा के आकार की ही दूर्वा चढ़ाएँ।

जैसे समिधा एकत्र बांधते हैं, उसी प्रकार दूर्वा को भी बांधते हैं। ऐसे बांधने से उनकी सुगंध अधिक समय टिकी रहती है। उसे अधिक समय ताजा रखने के लिए पानी में भिगोकर चढ़ाते हैं। इन दोनों कारणों से गणपति के पवित्रक बहुत समय तक मूर्ति में रहते हैं।

शमी की पत्तियाँ : शमी में अग्नि का वास है। अपने शस्त्रों को तेजस्वी रखने हेतु पांडवों ने उन्हें शमी के वृक्ष को कोटर में रखा था। जिस लकड़ी के मंथन द्वारा अग्नि उत्पन्न करते हैं, वह मंथा शमी वृक्ष का होता है।

मंदार (सफेद रुई) की पत्तियाँ : रुई व मंदार में अंतर है। रुई के फल रंगीन होते हैं व मंदार के फल सफेद होते हैं। जैसे औषधियों में पारा रसायन है, वैसे मंदार वानस्पत्य रसायन है।

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