- बेनी रघुवंशी
अध्यात्मिक उन्नति के लिए 'पिंड से ब्रह्मांड तक' की यात्रा तय करनी पड़ती है। इसका अर्थ यह कि जो तत्व 'ब्रह्मांड' में यानी शिव में है, उनका 'पिंड' में यानी जीव में आना आवश्यक है। तब ही जीव शिव से एकरूप हो सकता है।
पानी की बूँद में यदि तेल का जरा-सा भी अंश हो, तो वह पानी में पूर्णरूप से घुल नहीं सकता; उसी प्रकार जब तक गणपति भक्त गणपति की समस्त विशेषताएँ आत्मसात नहीं कर लेता, तब तक वह गणपति से एकरूप नहीं हो सकता अर्थात् उसकी सायुज्य मुक्ति नहीं हो सकती। इस संदर्भ में यहाँ दी गई गणपति की विशेषताएँ साधकों के लिए निश्चित ही मार्गदर्शक सिद्ध होंगी।
महर्षि पाणिनि अनुसार (कोलन) 'गण यानी अष्टवस्तुओं का समूह। वसु यानी दिशा, दिक्पाल (दिशाओं का संरक्षक) या दिक्देव। अतः गणपति का अर्थ हुआ दिशाओं के पति, स्वामी। गणपति की अनुमति के बिना किसी भी देवता का कोई भी दिशा से आगमन नहीं हो सकता; इसलिए किसी भी मंगल कार्य या देवता की पूजा से पहले गणपति पूजन अनिवार्य है।