मुद्गलपुराण के अनुसार गणेश जी ने आठ अवतार लिए थे। ये आठों अवतार उनके चारों युगों में हुए थे। उन्होंने हर युग में किसी न किसी राक्षस का वध किया था। आओ जानते हैं कि उन्होंने कौन कौन से राक्षसों का वध किया था।
सतयुग : सतयु में कश्यप व अदिति के यहां श्रीअवतार महोत्कट विनायक नाम से जन्म लिया। इस अवतार में गणपति ने देवतान्तक व नरान्तक नामक राक्षसों का संहार कर धर्म की स्थापना की।
त्रेतायुग : त्रेता युग में गणपति ने उमा के गर्भ से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन जन्म लिया और उन्हें गुणेश नाम दिया गया। इस अवतार में गणपति ने सिंधु नामक दैत्य का विनाश किया व ब्रह्मदेव की कन्याएं, सिद्धि व रिद्धि से विवाह किया। इस युग में उनका नाम मयूरेश्वर भी था।
द्वापर : द्वापर युग में गणपति ने पुन: पार्वती के गर्भ से जन्म लिया व गणेश कहलाए। परंतु गणेश के जन्म के बाद किसी कारणवश पार्वती ने उन्हें जंगल में छोड़ दिया, जहां पर पराशर मुनि ने उनका पालन-पोषण किया। इस अवतार में गणेश ने सिंदुरासुर का वध कर उसके द्वारा कैद किए अनेक राजाओं व वीरों को मुक्त कराया था।
1. मत्सरासुर : इस असुर ने शिव की तपस्या करके उनसे वरदान प्राप्त करके तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। उसके दो पुत्र सुंदरप्रिय और विषयप्रिय भी बहुत अत्याचारि हो चले थे। सभी देवता शिव के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा की गणेशजी अवतार लेकर आएंगे तब इनका वध होगा। फिर गणेशजी ने वक्रतुंड नाम से अवतार लेकर इनका वध किया।
2. मदासुर : यह असुर भी बड़ा भयंकर था। दैत्य गुरु शुक्राचार्य से इसने सभी तर की विद्या ग्रहण की थी। कई तरह की मायावी विद्या सीखकर यह देवताओं को प्राताड़ित करने लगा तब गणपति जी देवताओं के अवाह्वान पर एकदंत रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं, एक दांत, बड़ा पेट और उनका सिर हाथी के समान था। उनके हाथ में पाश, परशु, अंकुश और एक खिला हुआ कमल था। उन्होंने युद्ध करके मद का वध कर दिया।
3. मोहासुर : तारकासुर के वध के बाद शुक्राचार्य ने मोहासुर को दैत्यों का अधिपति बनाकर देवताओं के खिलाफ खड़ा किया। इसे मारने के लिए गणेशजी ने देवताओं के आह्वान पर महोदर नामक अवतार लिया। महोदर यानी बड़े पेट वाले। वे मूषक पर सवार होकर मोहासुर के नगर में पहुंचे तो मोहासुर ने बिना युद्ध किये ही गणपति को अपना इष्ट बना लिया।
4. कामासुर : विष्णु द्वारा जलंधर की पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किए जाने से एक दैत्य उत्पन्न हुआ, जिसका नाम कामासुर था। इससे शिव की तपस्या करके तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली थी। तब सारे देवताओं ने भगवान गणेश से प्रार्थना की तब भगवान गणेश विकट रूप में मोर पर विराजित होकर अवतरित हुए और उन्होंने कामासुर को पराजित किया।
5. लोभासुर : धनराज कुबेर से लोभासुर का जन्म हुआ जिसने शुक्राचार्य की आज्ञा से शिवजी की तपस्या की। शिवजी ने तपस्या से प्रसन्न होकर उसे निर्भय होने का वरदान दिया। इसके बाद लोभासुर ने सारे लोकों पर अपना कब्जा जमा लिया। इसके बाद देवगुरु बृहस्पति ने देवताओं को गणेश की उपासना करने की सलाह दी। गणेश ने गजानन रूप अवतरित होकर लोभासुर को युद्ध के लिए संदेश भेजा। शुक्राचार्य की सलाह पर लोभासुर ने बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
6. क्रोधासुर : क्रोधासुर नामक असुर ने सूर्य की उपासना करके उनसे ब्रह्माण्ड विजय का वरदान ले लिया। क्रोधासुर के इस वरदान के कारण सारे देवता युद्ध करने निकल पड़ा। तब गणपति ने लंबोदर रूप धारण करके क्रोधासुर को समझाया तब उसने अपना विजयी अभियान रोक दिया और सब छोड़कर पाताल लोक में चला गया।
7. ममासुर : एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम रख दिया। वह वन में तप के लिए चला गया तो वहां उसकी मुलाकात शंबरासुर हुए और उसने शंबरासुर से कई तरह आसुरी शक्तियां सीखी। शंबरासुर ने मम को गणेशजी की तपस्या करके उनको प्रसन्न कर ब्रह्माण्ड का राज मांगने को कहा। ऐसा ही हुआ तब शम्बर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। शुक्राचार्य ने मम को दैत्यराज के पद पर विभूषित किया और उसके बाद ममासुर ने सारे देवताओं को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। तब देवताओं द्वार प्रार्थना किए जाने पर गणेश विघ्नेश्वर के रूप में अवतरित हुए और उन्होंने ममासुर का मान-मर्दन कर देवताओं को छुड़वाया।
8. अहंतासुर : एक बार सूर्यदेव को छींक आ गई और उनकी छींक से एक अहम नामक दैत्य की उत्पत्ति हुई। शुक्राचार्य से विद्या प्राप्त करके वह अहम से अहंतासुर हो गया। उसने खुद का एक राज्य बसा लिया और भगवान गणेश को तप से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त करने के बाद बहुत अत्याचार और अनाचार करना प्रारंभ कर दिया। तब गणेश ने धूम्रवर्ण के रूप में अवतार लिया। उनका रंग धुंए जैसा था। वे विकराल थे। उनके हाथ में भीषण पाश था जिससे बहुत ज्वालाएं निकलती थीं। धूम्रवर्ण के रुप में गणेश जी ने अहंतासुर को हरा दिया। उसे युद्ध में हराकर अपनी भक्ति प्रदान की।