ग़ालिब का ख़त-5

भाई,

आज मुझको बड़ी तशवीश है। और यह खत मैं तुमको कमाल सरासीमगी में लिखता हूँ। जिस दिन मेरा ख़त पहुँचे, अगर वक्त डाक का हो, तो उसी वक्त जवाब लिखकर रवाना करो और अगर वक्त न रहा हो, तो नाचार दूसरे दिन जवाब भेजो। मंशा तशवीश-व-इज्तिराब का यह है कि कई दिन से राजा भरतपुर की बीमारी की खबर सुनी जाती थी कल से और बुरी खबर शहर में मशहूर है। तुमभरतपुर से क़रीब हो। यकीन है कि तुमको तहक़ीक़ हाल मालूम होगा। जल्द लिखो कि क्या सूरत है?

राजा का मुझको ग़म नहीं, मुझको फिक्र जानी जी की है कि उसी इलाके में तुम भी शामिल हो। साहिबान अंग्रेज़ ने रियासतों के बाब में एक कानून वज़ह किया है, यानी जो रईस मर जाता है, सरकार उस रियायत पर क़ाबिज व मुतसरिफ़ होकर रईसज़ादे के बालिग़ होने तक बंदोबस्त रियासत का अपने तौर पर रखती है। सरकारी बंदोबस्त में कोई क़दीम-उल-ख़िदमत मौकूफ़ नहीं होता।

इस सूरत में यकीन है कि जानी साहिब का इलाक़ा बदस्तूर क़ायम रहे। मगर यह वकील हैं, मालूम नहीं मुख्तार कौन है और हमारे बाबू साहिब में और उस मुख्तार में सोहबत कैसी है, रानी से इनकी क्या सूरत है। तुम अगर्चे बाबू साहिब की मुहब्बत का इलाका रखते हो, लेकिन उन्होंने अज राह दूरंदेशी तुमको मुतवस्सिल उस सरकार का कर रखा है और तुम मुस्तग़नियाना और लाउबालियाना जिंदगी बसर करते थे। निहार अब वह रविश न रखना। अब तुमको भी लाज़िम आ पड़ा है जानीजी के साथ रूशनास-ए-हुक्कामवाला मक़ाम होना है।

पस चाहिए कोल की आरामिश का तर्क करना और ख़ाही नख़ाही बाबू साहिब के हमराह रहना। मेरी राय में यूँ आया है-और मैं नहीं लिख सकता कि मौक़ा क्या है और मसलहत क्या है। जानी जी भरतपुर आए हैं या अजमेर में हैं, किस फिक्र में हैं और क्या कर रहे हैं? वास्ते खुदा के न मुख्तसर, न सरसरी, बल्कि मुफस्सल और मुक़फ्फा जो वाकै हुआ हो और जो सूरत हो, मुझको लिखो और जल्द लिखो कि मुझ पर ख़ाब-ओ खुर हराम है।

कल शाम को मैंने सुना, आज सुबह किले नहीं गया और यह ख‍त लिखकर अज़ राह-ए-एहतियात बैरंग रवाना किया है। तुम भी इसका जवाब बैरंग रवाना करना। आध आना ऐसी बड़ी चीज़ नहीं। डाक के लोग बैरंग खत को जरूरी समझकर जल्द पहुँचाते हैं और पोस्टपेड पड़ा रहता है। जब उस मुहल्ले में जाना होता है तो उसको भी ले जाते हैं। ज्यादा क्या लिखूँ कि परेशान हूँ।

28 मार्च सन् 1853 ई.

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