ग़ालिब का ख़त-10

साहिब,

तुम जानते हो कि यह मुआ़मला क्या है और क्या वाकै़ हुआ? वह एक जनम था कि जिसमें हम-तुम बाहम दोस्त थे और तरह-तरह के हममें-तुममें मुआ़मलात-ए-महर-ओ-मुहब्बत दरपेश आए। शेर कहे, दीवान जमा किए।

Aziz AnsariWD
उसी ज़माने में एक और बुजुर्ग थे कि वह हमारे-तुम्हारे दोस्त-ए-दिली थे और मुंशी नबी बख्श उका नाम और हक़ीर तख़ल्लुस था। नागाह, न वह ज़माना रहा, न वे अशख़ास, न वे मुआ़मलात, न वह इख़तिलात़ न वह इंबिसात। बाद चंद मुद्‍दत के फिर दूसरा जनम हमको मिला, अगर्चे सूरत इस जनम की बिऐनिही ही मिस्ल पहले जनम के हैं।

यानी एक ख़त मैंने मुंशी नबी बख्श साहिब को भेजा, उसका जवाब मुझको आया और एक ख़त तुम्हारा कि तुम भी मौसूम ब-मुंशी हरगोपाल व मुतख़ल्लस ब-तफ्‍ता हो, आज आया। और मैं जस शहर में हूँ, उसका नाम भी दिल्ली और उस मुहल्ले का नाम 'बल्ली मारों का मुहल्ला' है, लेकिन एक दोस्त उस जनम के दोस्तों मेंसे नहीं पाया जाता। वल्लाह! ढूँढने को मुसलमान इस शहर में नहीं मिलता। क्या अमीर, क्या गरीब, क्या अहले-ए-हिरफ़ा।

  सिर्फ अशआ़र की ख़िदमत बजा लाता रहा, और नज़र अपनी बेगुनाही पर शहर से निकल नहीं गया। मेरा शहर में होना हुक्काम को मालूम है, मगर चूँकि मेरी तरफ़ बादशाही दफ्तर में से या मुख़बिरों के बयान से कोई बात पाई नहीं गई, लिहाज़ा तलबी नहीं हुई।      
अगर कुछ हैं, तो बाहर के हैं। हिंदू अलबत्ता कुछ-कुछ आबाद हो गए हैं। अब पूछो कि तू क्योंकर मसकन-ए-क़दीम बैठा रहा। साहिब-ए-बंदा, मैं हकीम मुहम्मद हसन खाँ मरहूम के मकान में नौ-दस बरस से किराए को रहता हूँ और यहाँ क़रीब क्या, बल्कि दीवार-ब-दीवार हैं घर हकीमों के और वे नौकर हैं राजा नरेंद्रसिंह बहादुर वालिये पटियाला के। राजा ने साहिबान-ए-आलीशान से अहद ले लिया था किबर वक्त गा़रत-ए-दिल्ली ये लोग बचे रहें। चुनांचे बाद-ए-फ़तह राजा के सिपाही यहाँ आ बैठे और यह कूचा महफूज रहा, वरना मैं कहाँ और यह शहर कहाँ?

मुबालग़ा न जानना, अमीर-ग़रीब सब निकल गए, जो रह गए थे, वे निकाले गए, जागीरदार, पेंशनदार, दौलतमंद, अहल-ए-हिरफ़ा, कोई भी नहीं है। मुफ़स्सल हाल लिखते हुए डरता हूँ। मुलाज़मान-ए-किला पर शिद्दत है और बाज़ पुरस और दार-ओ-गीर में मुबतला हैं, मगर वे नौकर जो इस हंगामे में नौकर हुए हैं और हंगामे में शरीक रहे हैं, मैं गरीब शायर दस-दस बरस से तारीख़ लिखने और शेर की इस्लाह देने पर मुतअ़ल्लिक हुआ हूँ। ख़ाह उसको नौकरी समझो, ख़ाह मजदूरी जानो। इस फ़ितना व आशोब में किसी मसहलत में मैंने दखल नहीं किया।

सिर्फ अशआ़र की ख़िदमत बजा लाता रहा, और नज़र अपनी बेगुनाही पर शहर से निकल नहीं गया। मेरा शहर में होना हुक्काम को मालूम है, मगर चूँकि मेरी तरफ़ बादशाही दफ्तर में से या मुख़बिरों के बयान से कोई बात पाई नहीं गई, लिहाज़ा तलबी नहीं हुई। वरना जहाँ बड़े-बड़े जागीरदार बुलाए हुए या पकड़े हुए आए हैं, मेरी क्या हक़ीकत थी। ग़रज़ कि अपने मकान में बैठा हूँ, दरवाजे से बाहर निकल नहीं सकता।

सवार होना या कहीं जाना तो बहुत बड़ी बात है। रहा यह कि कोई मेरे पास आवे, शहर में है कौन जो आवे? घर के घर बे-चराग़ पड़े हैं, मुजरिम सियासत पाए जाते हैं, जर्नेली बंदोबस्त 11 मई से आज तक, यानी 5 सितंबर सन् 1857 तक बदस्तूर है। कुछ नेक व बद का हाल मुझको नहीं मालूम, बल्कि हनूजल ऐसे अमूर की तरफ़ हुक्काम की तवज्जोह भी नहीं।

देखिए अंजाम-ए-कार क्या होता है। यहाँ बाहर से अंदर कोई बगैर टिकट का आने-जाने नहीं पाता। तुम ज़िनहार यहाँ का इरादा न करना। अभी देखना चाहिए, मुसलमानों की आबादी का हुक्म होता है या नहीं। बहरहाल, मुंशी साहिब को मेरा सलाम कहना और यह ख़त दिखा देना। इस वक्त तुम्हारा ख़त पहुँचा और इसी वक्त मैंने यह ख़त लिखकर डाक के हरकारे को दिया।

5 दिसंबर 1857