किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार ?

शनिवार, 19 अप्रैल 2008 (21:09 IST)
नीरज

जब तुम्हारी ही हृदय में याद हर दम,
लोचनों में जब सदा बैठे स्वयं तुम,
फिर अरे क्या देव, दानव क्या, मनुज क्या?
मैं जिसे पूजूं जहां भी तुम वहीं साकार !
किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार ?

क्या कहा- 'सपना वहां साकार होगा,
मुक्ति औ अमरत्व पर अधिकार होगा,
किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूं
है जहां करती अमरता मत्यु का श्रृंगार।
क्या करूं आकर तुम्हारे द्वार ?

तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन,
मत डुबाओ हास में ये अश्रु के कण,
क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं
'प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार!'
मत कहो- आओ हमारे द्वार।

आज मुझमें तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय,
अब न अपने बीच कोई भेद-संशय,
क्योंकि तिल-तिलकर गला दी प्राण! मैंने
थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार।
व्यर्थ फिर आना तुम्हारे द्वार॥

दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल,
क्योंकि मेरी साधना ने पल-निमिष चल
कर दिए केन्द्रित सदा को ताप-बल से
विश्व में तुम और तुम में विश्वभर का प्यार।
हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार॥

बन्द करो मधु की....

बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में,
अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,
बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,
आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है
कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,
जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,
किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में,
प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता,
जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,
वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,
आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,
करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,
अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,
और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है
कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,
नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,
सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो
धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,
जो मुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

मैं तुम्हें अपना .....

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं।

अजनबी यह देश, अनजानी यहां की हर डगर है,
बात मेरी क्या- यहां हर एक खुद से बेखबर है
किस तरह मुझको बना ले सेज का सिंदूर कोई
जबकि मुझको ही नहीं पहचानती मेरी नजर है,
आंख में इसे बसाकर मोहिनी मूरत तुम्हारी
मैं सदा को ही स्वयं को भूल जाना चाहता हूं
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दीप को अपना बनाने को पतंगा जल रहा है,
बूंद बनने को समुन्दर का हिमालय गल रहा है,
प्यार पाने को धरा का मेघ है व्याकुल गगन में,
चूमने को मृत्यु निशि-दिन श्वास-पंथी चल रहा है,
है न कोई भी अकेला राह पर गतिमय इसी से
मैं तुम्हारी आग में तन मन जलाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

देखता हूं एक मौन अभाव सा संसार भर में,
सब विसुध, पर रिक्त प्याला एक है, हर एक कर में,
भोर की मुस्कान के पीछे छिपी निशि की सिसकियां,
फूल है हंसकर छिपाए शूल को अपने जिगर में,
इसलिए ही मैं तुम्हारी आंख के दो बूंद जल में
यह अधूरी जिन्दगी अपनी डुबाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

वे गए विष दे मुझे मैंने हृदय जिनको दिया था,
शत्रु हैं वे प्यार खुद से भी अधिक जिनको किया था,
हंस रहे वे याद में जिनकी हजारों गीत रोये,
वे अपरिचित हैं, जिन्हें हर सांस ने अपना लिया था,
इसलिए तुमको बनाकर आंसुओं की मुस्कराहट,
मैं समय की क्रूर गति पर मुस्कराना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दूर जब तुम थे, स्वयं से दूर मैं तब जा रहा था,
पास तुम आए जमाना पास मेरे आ रहा था
तुम न थे तो कर सकी थी प्यार मिट्टी भी न मुझको,
सृष्टि का हर एक कण मुझ में कमी कुछ पा रहा था,
पर तुम्हें पाकर, न अब कुछ शेष है पाना इसी से
मैं तुम्हीं से, बस तुम्हीं से लौ लगाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें, केवल तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

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