केंद्र सरकार ने जिस 'जिद' के साथ जीएसटी के रेट तय किए थे, अब उन्हें वापस भी लेना पड़ गया है। जनता के कड़े विरोध के बावजूद सरकार को यह फैसला लेने में करीब तीन महीने का समय लग गया। इसे उसकी सदाशयता तो कतई नहीं कहा जा सकता है। दरअसल, यह विपक्ष और जनता के दबाव में लिया गया राजनीतिक फैसला है।
कहा तो यह भी जा रहा है कि राहुल गांधी और विपक्ष के अन्य नेताओं ने जीएसटी के मुद्दे को जिस तरह से उठाया था उससे सरकार पूरी तरह दबाव में आ गई थी और यह फैसला लेने पर मजबूर हो गई। गुजरात चुनाव से ठीक पहले इस तरह का फैसला सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाता है।
हालांकि यह भी माना जा रहा है कि जीएसटी के भारी विरोध के बीच केन्द्र की भाजपा सरकार को गुजरात में राजनीतिक जमीन दरकती दिख रही थी। माना तो यह भी जा रहा है कि पार्टी के आंतरिक सूत्रों ने भी जनता की नाराजी से सरकार को अवगत कराया था, इसीलिए ताबड़तोड़ यह फैसला लिया। ...और गुजरात में शिकस्त का अर्थ नरेन्द्र मोदी का गुजरात मॉडल फेल, जिसके आधार पर वे प्रधानमंत्री पद की कुर्सी तक पहुंचे थे।
सरकार ने ताजा फैसले में 28 फीसदी टैक्स के दायरे में आने वाली 228 वस्तुओं में से 175 से ज्यादा को उठाकर 18 फीसदी वाले स्लैब में ला दिया। अन्य स्लैब में भी बदलाव किए गए। इनमें कुछ 5 से 0 पर लाए गए, वहीं कुछ 18 से 12 और 5 फीसदी पर। दरअसल, सरकार को डर था कि इसका नकारात्मक असर गुजरात के चुनाव पर पड़ सकता है क्योंकि गुजरात में एक बड़ा वर्ग व्यापारियों का है और वह सरकार के जीएसटी लागू करने के फैसले से नाखुश है।
गुजरात से इंदौर आए एक व्यापारी ने वेबदुनिया से बातचीत में साफ शब्दों में कहा कि जीएसटी और नोटबंदी से पहले मैं नरेन्द्र मोदी का अंधभक्त था, लेकिन अब नहीं हूं। वे जीएसटी और नोटबंदी के फैसले पर तो मोदी के साथ दिखे, लेकिन जिस तरह इनको लागू किया उसे लेकर उनमें बहुत नाराजगी थी। सच भी है, यदि इसे लागू करने में गलती हुई है तो इसके लिए भी तो आप ही जिम्मेदार हैं।
ये तो सिर्फ एक उदाहरण है। इनके जैसे न जाने कितने व्यापारी या आम नागरिक होंगे जो कभी मोदी के कट्टर समर्थक हुआ करते थे, लेकिन अब ऐसी लाइन पर आकर खड़े हो गए जहां से वे भाजपा के विरोध में भी वोटिंग कर सकते हैं। 2019 में 350 सीटें जीतने का सपना देख रही भाजपा को अभी से सतर्क हो जाना चाहिए अन्यथा बाद में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।