कोई संस्था यूँ ही विशिष्ट नहीं बन जाती। उसे शिखर तक पहुँचाने में कुछ स्वप्नदृष्टा लोगों की जीवटता मेहनत और कार्यकुशलता का योगदान होता है। ये बातें जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) और डॉ. नामवर सिंह के संदर्भ में सटीक बैठती हैं। डॉ. नामवर सिंह निर्विवाद रूप से हिंदी आलोचना के शलाका पुरुष हैं। लेकिन एक अध्यापक के रूप में भी वे शीर्ष स्थान पर ठहरते हैं।
सुमन केशरी द्वारा संपादित 'जेएनयू में नामवर सिंह' नामक पुस्तक इन सभी बातों को सहजता से स्थापित करती है। छह खंडों में विभक्त इस किताब में 'जेएनयू के नामवर सिंह' और 'नामवर सिंह का जेएनयू' दोनों सजीव रूप में उपस्थित हैं। नामवर जी का जब जेएनयू आगमन हुआ, तब वहाँ बोहेमियन मिश्रित अंग्रेजियत पूरी तरह हावी थी। हिंदी कहीं सुनाई नहीं पड़ती थी। लेकिन नामवर जी ने बिना किसी हीनभावना के धोती-कुर्ते में अपना ठाट बरकरार रखा। उन्होंने डंके की चोट पर इस देसीपन और हिंदी को नई ऊर्जा और ताकत के साथ स्थापित किया।
वे हिंदी के विद्यार्थियों को ऑलराउंडर बनाना चाहते। बौद्धिक वातावरण में हिंदी का लड़का अपने को हीन महसूस न करे। जाहिर है इसी का परिणाम था कि जेएनयू छात्रसंघ चुनाव के अध्यक्षीय बहसों में हिंदी भी सुनाई पड़ने लगी। बाद में हिंदी के छात्र जेएनयू अध्यक्ष भी चुने गए। नामवर जी अपनी शख्सियत के निर्माण में जेएनयू की भूमिका को ईमानदारी से स्वीकार करते हैं।
पुस्तक के दूसरे खंड में नामवर जी के सहकर्मियों और समकालीनों ने उन पर खुलकर लिखा है। उर्दू के प्रो. असलम परवेज नामवर जी को 'तहजीब का प्रतीक' बताते हैं। केदारनाथ सिंह अपने आत्मीय संस्मरण में नामवर जी की पुस्तक 'दूसरी परंपरा की खोज' और जेएनयू की शैक्षणिक दुनिया के बीच एक सहज संबंध देखते हैं। अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के प्रो. तुलसीदास ने अपने जीवंत संस्मरण में दलित साहित्य एवं अंबेडकरी विचारधारा से जुड़े मसलों पर नामवर सिंह के साथ होने वाली चर्चाओं का जिक्र करके नामवर जी की पक्षधरता को सामने रखा है।
अकारण नहीं है कि समाजशास्त्री प्रो. आनंद कुमार अपने आलेख में नामवर सिंह को ज्ञानसागर और गुरुगरिमा का अद्भुत संगम बताते हैं। दूसरे अनुशासनों के पाठ्यक्रम निर्माण में भी उनका योगदान रहा। उल्लेखनीय है कि नामवर जी की कक्षाओं में दूसरे विषयों के छात्र भी बैठते थे और स्वयं नामवर जी भी अन्य अनुशासनों में कक्षाएँ लेते थे। पुस्तक के इस खंड में गोविंद प्रसाद, पुष्पेश पंत, जी.पी. देशपांडे, एस.आर. किदवई था रामचंद्र आदि के उद्गार महत्वपूर्ण हैं।
इस किताब का एक महत्वपूर्ण हिस्सा वह है जब नामवर जी के छात्र उनके अध्यापकीय रूप के विविध पहलुओं को सामने लाते हैं। प्रो. रामवृक्ष लिखते हैं कि नामवर जी के लिए सारे छात्र समान थे। इस क्रम में वे पुरुषोत्तम अग्रवाल, ज्योतिष जोशी, समीर वरूण नंदी, सुमन केशरी एवं सुरेश शर्मा ने भी बेहतर प्रकाश डाला है।
चमन लाल और राजेन्द्र शर्मा ने नामवर जी के अंतर्विरोधों की भी चर्चा की है। इस किताब में पुस्तकालय कर्मचारी लक्ष्मी मलिक, चपरासी रामदुलारे, कैंटीन वाले मदन राव एवं पान दुकानदार पूरनचंद की टिप्पणियों को शामिल करके संपादिका ने खुद को जेएनयूवाली होने को सार्थक किया है। निश्चय ही यह पुस्तक जेएनयू में नामवर सिंह को समझने में बड़ी भूमिका निभाती है। लेकिन ध्यान देने योग्य है कि यह किताब जेएनयू के बाहर वाले नामवर सिंह के बारे में नहीं है और जाहिर है इन दोनों नामवर सिंह में बड़ा अंतर है।
पुस्तक : जेएनयू में नामवर सिंह संपादक : सुमन केशरी प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन मूल्य : 350 रुपए