आत्‍म के संसार में सार्वभौमिक स्‍वप्‍न हैं अनिरुद्ध जोशी की कविताएं

जब चारों तरफ कविताओं का खौफनाक शोर और आतंक पसरा हो, जब हर कविता अपनी अभिव्‍यक्‍ति के लिए चीख- चीखकर अपने लिए जगहों का अतिक्रमण करना चाहती हो, ऐसे में एक बेहद चुप, लेकिन अपनी दृष्‍टि में संपूर्ण और अपनी चेतना में सबसे उजली कविताओं का दस्‍तावेज आपके हाथों में हो तो जी चाहता है कि इस बेहद तेजी से भागते समय को नकार दिया जाए, उसे खारीज कर दिया जाए और इन्‍हीं कविताओं के बीच कहीं ठहर लिया जाए, इनके मध्‍य कहीं अपना निवास बना लिया जाए।

कविताओं का यह दस्‍तावेज है कवि और लेखक अनिरुद्ध जोशी ‘शतायु’ का। शीर्षक है ‘धारोष्‍ण’। अनिरूद्ध की कविताओं ने आने के लिए कोई जल्‍दबाजी नहीं मचाई। वो ध्‍यान की तरह धीमे- धीमे आई। ध्‍यान की तरह घटती चली गई अपने समय में। कभी सुप्‍त और कभी जागृत अवस्‍था में। (वैसे कविता के आने का कोई समय नहीं होता) वो बगैर दस्‍तक दिए आती हैं, जैसे बोध आता है। ‘धारोष्‍ण’ में दर्ज अनिरुद्ध जोशी की ये कविताएं उनके कवित्‍व का वही बोध है।

मैं हमेशा से मानता रहा हूं कि कविता लिखने के लिए कोई स्‍कूल नहीं होता। कोई ऐसी जगह नहीं होती, जिसे हासिल कर के यह कहा जाए कि हां, अब मैं कवि हो गया हूं। कविता लिखने के लिए कोई मेज, कोई कलम, कोई लैंप, हाथ में कॉफी का कोई मग या कोई जगह नहीं चाहिए, जीवन से सना हुआ खून और जिन तत्‍वों से यह जीवन बना है उन तत्‍वों से सनी हुई दृष्‍टि और चेतना चाहिए।

दरअसल, आदमी का मनुष्‍य तत्‍व ही किसी आदमी को कवि बनाता है। अनिरुद्ध जोशी की कविताओं में वही जीवन को देखने का वही सूक्ष्म तत्‍व उपस्‍थित हैं। उनकी कविताओं में अध्‍यात्‍म की आंतरिक यात्रा साफ  महसूस होती है।

एक तरफ अनिरुद्ध जोशी की कविताओं में ध्‍यान है और वे ध्‍यान करती सी महसूस होती हैं तो वहीं बतौर एक कवि वे खुद अपनी कविताओं में ध्‍यान की तरह निष्‍पक्ष और तटस्‍थ नजर हैं, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं होना या सबकुछ हो जाने की तरह। उनकी एक कविता कहती है...मैं पानी बनना चाहता हूं, हां, नदी का पानी। कितने ही पत्‍थरों से टकराकर, तोड़ना चाहता हूं उनका दंभ।

अपनी कविताओं में वे किस तरह से एकाकार हैं और किस हद तक उस अवस्‍था को प्राप्‍त कर लेते हैं और फिर अंत में पढ़ते हुए ‘अद्वैत’ का भाव जागृत हो जाता है। बहुत साफतौर पर इसकी गवाही ‘मेरे भीतर ही कहीं’ शीर्षक से उनकी यह कविता देती है।
अभी मैंने
आकाश कहा ही था कि
मछली ने पूछा
किसे कहते हैं आकाश
कुछ देर तक मेरी आंखें
शून्‍य में कुछ खोजती रहीं
फिर मैंने कहा कि
जो शून्‍य है, उसे कहते हैं आकाश
मछली ने फिर खड़ा किया प्रश्‍न कि
किसे कहते हैं शून्‍य
मैंने सोचा
इस तरह तो बात आगे बढ़ती जाएगी
तब उसे मैंने जल से बाहर निकालकर कहा कि
इसे कहते हैं आकाश और इसे ही कहते हैं शून्‍य
और फिर वह
प्रश्‍न पूछने के लिए शेष नहीं थी।
साल 1995 में लिखी गई यह कविता इस बात का सुबूत देती है कि अनिरुद्ध जोशी की कविताओं की दृष्‍टि में इस पूरे जगत या ब्रह्मांड में कोई दूसरी चीज नहीं है, उनकी कविताएं अद्वैत का मैसेज कन्‍वे करती हैं। इस अद्वैत को जान लेने के बाद कोई प्रश्‍न शेष नहीं रह जाता, बल्‍कि प्रश्‍न पूछने वाला भी शेष नहीं रह जाता है। जैसे इस कविता में मछली।

उनकी कविताओं में स्‍वयं को समग्र समझने की चाह हैं, पूरा जानने की आकांक्षा या लालसा। अगर वो हाथ मिलाते हैं तो वे सिर्फ हाथ नहीं हैं, अगर वे देखते हैं तो सिर्फ आंख नहीं है, उनका कवि चाहता है कि उन्‍हें संपूर्ण में देखा जाए, जगत के तत्‍व की तरह या उसके सार की तरह।

हो सकता है कि
मैं तुमसे मिलाऊं हाथ
और तुम कहो कि मैंने मिलाया तुमसे हाथ
जबकि मैं हाथ था ही नहीं
क्‍या तुम मुझे हाथ समझती हो
हो सकता है कि मैं
करूं तुमसे बात और
तुम कहो कि
मैंने तुमसे की बात
क्‍या तुम मुझे बात समझती हो
साहित्‍य में तमाम तरह की लाउडनेस को दरकिनार करते हुए इस किताब की कविताएं बेहद खामोशी और चुपचाप तरीके से खुद को रचती और अभिव्‍यक्‍त करती हैं। इन कविताओं में होने की कोई अराजकता उपस्‍थित नहीं है। वे अपने से जुड़ी चीजों को बेहद मौन में बरतना चाहती हैं। इतना कि कोई किसी आवाज से भी व्‍यथित नहीं हो, कवि के रूप में अनिरुद्ध खुद को प्रकृति की तरह बेहद चुपचाप घटते हुए देखना चाहते हैं।
तुम यकीन रखना
सोते वक्‍त मैं
एक भी शब्‍द लेकर नहीं सोऊंगा
बल्‍कि, उसी तरह
चुपचाप सो जाऊंगा
जिस तरह कि सोते हैं वृक्ष।

ठीक इसी तरह की एक कविता में वे चुपचाप घटना चाहते हैं और अपने जन्‍म की प्रतीक्षा में है, पैदा होने से उनका मतलब शायद बोध के जन्‍म की प्रतीक्षा। शायद पैदा होने से उनका अर्थ एक अध्‍यात्‍मिक ट्रांसफॉर्मेशन से हो।
हम आएंगे
तुम्‍हें पुकारते हुए नहीं
जूते बजाते हुए नहीं
दस्‍तक देते हुए नहीं
किंतु
तुम यह मत पूछना
कि मैं कब पैदा हुआ था
क्‍योंकि
बस यही होना बाकी है।

अनिरुद्ध जोशी की कविताओं में प्रकृति बार- बार दर्ज होती है। नदी के रूप में, हवा, समुद्र, वृक्ष, आकाश और जल के रूप में वे बार-बार अपनी कविताओं में लौटते हैं। संभवत: यह उनकी दर्शन की दृष्‍टि की वजह से होता है। क्‍योंकि दर्शन को प्रकृति से अलग नहीं किया जा सकता। यूं कह सकते हैं कि वे अपनी कविताओं के माध्‍यम से प्रकृति के नजदीक रहना चाहते हैं। या हो सकता है देखने की वजह से या नजर खुल जाने की वजह से बार-बार उनकी कविताओं में प्रकृति का इंप्रेशन आता है। यह भी जाहिर है कि जिसके पास देखने दृष्‍टि है या जो अपने जीवन को अध्‍यात्‍म की बेहद महीन डोर से संचालित करता है, वो अपनी कला को प्रकृति से विलग नहीं कर सकता, फिर चाहे वो कविता लिखना हो या चित्रकारी करना ही क्‍यों न हो। जब कलाकार की नजर खुलती है जो सारी प्रकृति उसकी रचना है।

यहां तक अनिरुद्ध अपनी कविताओं में अंधेरे को भी बेहद डीटेल में देखते हैं। अंधेरा भी उनकी कविता का बिंब है। उनकी इस किताब में अंधेरे पर तीन कविताएं हैं।

शाश्‍वत है अंधेरा
क्‍या अंधेरे को
कभी फिेक्र हुई होगी
कि मैं अंधेरा हूं
नहीं
शायद नहीं।

अनिरुद्ध जोशी के काव्‍य संकलन ‘धारोष्‍ण’ को पढ़ते हुए अनुभूति होती है कि इन्‍हें बरबस नहीं लिखा गया। न ही इनमें इन दिनों की कविताओं में आने वाली खामखां की कोई रूमानियत ही है। यह अनिरुद्ध जोशी के आंतरिक विषय की यात्रा है, जो समय के साथ दर्ज होती गई। इस यात्रा में आत्‍म के संसार में वे अपने स्‍वप्‍न को भी सार्वभौमिक, एक यूनिवर्सल स्‍वप्‍न मानते हैं। जो एक में सबको और सबको एक में देखता है। जिसका बेहतरीन उदाहरण यह कविता है।
तुम्‍हारा स्‍वप्‍न
मेरे स्‍वप्‍न में आ गया है
और सुनो
मेरा कोई स्‍वप्‍न नहीं है
तुम्‍हारा ही स्‍वप्‍न अब से मेरा स्‍वप्‍न है
और यह भी सुन लो
अब मैं नहीं हूं एक नाम
जिसे पुकारने पर हो कोई प्रतिक्रया

शीर्षक : धारोष्ण
प्रकाशन : संदर्भ प्रकाशन, भोपाल
कीमत : 250 रुपए

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