पुस्तक चर्चा : पद्मावत, मानुस पेम भएउ बैकुंठी

पुरुषोत्तम अग्रवाल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य रहे हैं। लेकिन उनकी बड़ी पहचान एक लेखक और चिंतक की है। हमने उन्हें टीवी चैनलों के बौद्धिक विमर्श में तब देखा और सुना है, जब आज की तरह चैनल चिल्लपौं से भरे हुए मछली बाजार नहीं थे। उनकी ताजा किताब पद्मावत: एन एपिक लव स्टोरी हिंदी में आ गई है।

यह मूलत: मलिक मोहम्मद जायसी का अवधी में लिखा गया महाकाव्य है, लेकिन दशकों तक एक संवेदनशील अध्यापक के रूप में जेएनयू में एमए की कक्षाओं में उन्होंने भरे ह्दय और रुंधे गले से इसे पढ़ाया है। अनगिनत विद्यार्थी उन कक्षाओं में अश्रुपूरित नेत्रों से गुजरे हैं।

जायसी वर्तमान उत्तरप्रदेश के अमेठी जिले के जायस नगर के रहने वाले थे। पद्मावत अवधी का महाकाव्य है, जो भारत के इतिहास के एक ऐसे पन्ने को छूता है, जिसकी लोक व्याप्ति के संवेदनशील कारण हैं। यह पन्ना 14 वीं सदी के आरंभ में चित्तौड़गढ़ का है। सन् 1303 में अलाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़ पर हमला एक इतिहास है। इसके पहले और इसके बाद के 13-13 सालों तक भारत भर में उसके ऐसे अनगिनत हमलों की लंबी फेहरिस्त भी इतिहास है। लेकिन चित्तौड़ पर हमले की कथा में कुछ इतिहास है, जो समकालीन दस्तावेजों पर विस्तार से है। जो दस्तावेजों पर नहीं है, वह लोक में व्याप्त है।

चित्तौड़ में पद्मिनी या पद्मावती के जौहर के बारे में खिलजी के समकालीन इतिहास में कुछ नहीं है। फिर पद्मिनी या पद्मावती का किरदार कहां से आ गया? आ ही नहीं गया, वह लोक में इस कदर व्याप्त भी हो गया कि दो सौ साल बाद चित्तौड़ से सैकड़ों मील दूर जायस नाम के कस्बे में रहने वाला एक कवि अपनी एक महान रचना के लिए उस कथानक को सिर माथे पर लिए सदियों बाद भी काव्यरसिकों को चौंका रहा है। जायसी के हाथों एक तरह से पद्मिनी और पद्मावती की लोक में समाई हुई आत्मा फिर से देह धारण करती है।

खिलजी की चित्तौड़ फतह के करीब सवा दो सौ साल बाद रचा गया जायसी का ‘पद्मावत’ सत्य और कल्पना का एक अनूठा संगम है, जिसमें डुबकी आज भी रचनाकारों को भावविभोर कर देती है। प्रो. अग्रवाल कहते हैं, हिंदी साहित्य में ‘पद्मावत’ का स्थान गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस के बाद माना गया। दोनों ही महाकाव्य एक ही सदी में चंद दशकों के फासले पर रचे गए। अकबर के समय "मानस' 1574 में और उसके पहले शेरशाह सूरी के समय "पद्मावत' 1540 में।

किसी भी विषय में प्रामाणिक शोध के लिए मूल पांडुलिपियों की तलछट तक छानबीन पुरुषोत्तम अग्रवाल की कड़क कसौटी रही है। ‘पद्मावत’ की पांडुलिपियां ज्यादातर फारसी में प्राप्त हैं। किंतु जायसी की हस्तलिखित होने का दावा किसी का नहीं है। यह जायसी की लेखनी का कमाल और उनकी कृति की लोकप्रियता का प्रमाण है कि मूल रचना के सौ साल के भीतर ही बांग्ला में पद्मावत प्रसारित हो चुकी थी।

मलिक मोहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ पर हिंदी से पहले अंग्रेजी में उनकी किताब आई थी। राजकमल प्रकाशन से हिंदी अनुवाद 2022 में आया है। यह एक ही बैठक में पढ़ने लायक 211 पेज की शानदार किताब है। एक लंबी पृष्ठभूमि में इसके 66 पेज जायसी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर रोशनी डालते हैं। यह प्रो. अग्रवाल की प्रिय पुस्तकों में से एक है और जायसी भी उनके पसंदीदा रचनाकार हैं। जायसी एक ऐसे प्रतिभा संपन्न कवि हैं, कुदरत ने जिनके साथ नाइंसाफी की। चेचक के कारण उनकी एक आंख की रोशनी और एक कान से श्रवण शक्ति छीन ली थी और इसका दंश उनकी लेखनी में भी झलका। अपनी काव्य प्रतिभा से जायसी ने कुदरत की इस कमी की भरपाई खुद कर दी।

पाठकों को सरलता से समझ में आने वाले छोटे-छोटे हेडलाइन और पांच अध्यायों में चित्तौड़गढ़ के राजा रतनसेन हैं, उनकी रानी नागमती हैं, एक सिंहलद्वीप है, जहां कोई पद्मिनी है और उसके पास हीरामन नाम का एक समझदार तोता है, जो मनुष्य की बोली बोलता है। अलाउद्दीन का जिक्र बहुत बाद में है। जौहर की घटना केवल तीन शब्दों में।

दिलचस्प यह है कि पद्मिनी के चर्चे सुनकर उसकी खोज में निकले रतनसेन जिस सिंहल द्वीप की ओर प्रस्थान करते हैं, उसका मार्ग कालिदास के मेघों की तरह बताए नक्शे पर क्रमबद्ध रूप से साफ है। मध्यप्रदेश के मालवा, छत्तीसगढ़ में गढ़ा और कोंडा होकर उड़ीसा से आगे दूर कहीं समुद्र में है सिंहल द्वीप, जो श्रीलंका नहीं है। उड़ीसा में उनका स्वागत करने वाले राजा गजपति भी जायसी के समकालीन राजवंश से हैं। राजस्थान के राजाओं ने ओड़ीशा की यात्राएं की थीं। बीसलदेव रासो में अजमेर के एक राजा बीसलदेव ओडिशा के बारे में लौटकर बताते हैं कि वहां हीरे इतनी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जितना कि नमक। यह पद्मावत से दो सौ साल पहले का विवरण है।

रतनसेन एक परम प्रेमी की तरह पद्मिनी की खोज में सिंहलद्वीप पहुंचते हैं। हीरामन के मार्गदर्शन में पद्मिनी से उनकी भेंट और चित्तौड़ वापसी जायसी की कल्पनाओं में ढलकर मनुष्य की अंतहीन इच्छाओं, राजाओं के जीवन, ऐश्वर्य, देह के सौंदर्य, प्रेम और वासना, इन्हें पाने के संघर्ष, षड़यंत्र, जय-पराजय और अंतत: जीवन की क्षणभंगुरता का विस्मित करने वाला आख्यान है, जिसके बारे में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने हर मोड़ पर सावधान किया है कि इसे ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में न पढ़ा जाए। यह ऐतिहासिक तथ्यों का उपयोग करती हुई एक महान काल्पनिक कृति है। जायसी ने इतिहास नहीं लिखा है।

यह किताब जायसी की महान कृति के बहाने उनके मनोभावों को जाकर छूती है। आज के संदर्भों में यह मुस्लिम काल की क्रूरताओं पर रोशनी डालने वाला दस्तावेज कतई नहीं है। लेखक का आग्रह है कि इसे  एक प्रतिभा संपन्न कवि की अद्भुत क्षमताओं का अनुभव करने के लिए ही पढ़ा जाना चाहिए, जिसने पद्मावत के आरंभ में ही इस रचना के माध्यम से अपने यश की एक निर्दोष कामना की है।

यह एक भ्रांति रही है कि जायसी ने प्रेमगाथा के रूप में पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच कोई अकबर-जोधा टाइप खिचड़ी पकाई है। असल में जायसी पद्मिनी के लिए व्याकुल प्रेमी रतनसेन के पक्ष में यहां तक हैं कि रचना के अंत में उन्होंने अपने प्रिय राजा को खिलजी के हाथों किसी शर्मनाक पराजय और मृत्यु तक नहीं पहुंचाया है। इतिहास जो भी रहा हो, जायसी के ह्दय में कुछ और ही था।

पुरुषोत्तम अग्रवाल ‘पद्मावत’ पर लिखते हुए राजस्थान में पद्मिनी पर लिखे गए दूसरे ग्रंथों से भी रूबरू कराते हैं। हेमरतन द्वारा रचित "चौपाई' (1588) और जटमल की रचना "बात' (1627)। जटमल के विवरण में रतनसेन एक कमजोर और लालची राजा है, जो अलाउद्दीन के आगे झुक जाता है। हेमरतन का रतनसेन इससे कुछ बेहतर है। जायसी के रतनसेन ऐसे नहीं हैं कि पद्मिनी की एक झलक पाने के निवेदन को स्वीकार कर ले। ऐसा कोई निवेदन जायसी ने कराया ही नहीं है।

जायसी के काव्यात्मक कथा विस्तार में खिलजी का चित्तौड़ घेराव आठ साल लंबा है, जबकि असल में यह आठ महीनों का ही था। ढलती उम्र में जब देह जर्जर होने लगती है और इच्छाओं के तूफान थमने लगते हैं तब पद्मावत के आखिरी छंद में मलिक मोहम्मद जायसी फरमाते हैं-‘अब बुढ़ापे का वक्त है, जवानी पीछे छूट गई है। शरीर ताकतवर नहीं रह गया है। नजर धुंधला गई है, चेहरा पिचक गया है, दांत टूट गए हैं, आवाज भर्रा गई है। साफ सोच की जगह बेअक्ली हावी है, गर्व से ऊंचा सिर झुक गया है, कानों को सुनाई देना बंद हो गया है, बाल सफेद हो गए हैं। जवानी बीतने के बाद शरीर तो जिंदा है मगर मरणासन्न है। सिर हिलाता हुआ बूढ़ा आदमी वास्तव में उन लोगों को कोस रहा होता है, जिन्होंने उसे लंबे जीवन का आशीर्वाद दिया था।’

पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी कृति में कहते हैं कि ‘पद्मावत’ को अपनी पहले से तय किसी भी अवधारणा को किनारे कर एक प्रेम का उत्सव मनाने वाली महान रचना के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। ‘पद्मावत’ काम से राम की यात्रा में एक मील का पत्थर ठोकती है। यह मनुष्य की कभी न शांत होने वाली कामेच्छा का महाकाव्य है। जायसी का उद्देश्य किसी राजपूत या हिंदू गौरव का महिमामंडन बिल्कुल नहीं था। निजी जीवन में इस्लाम, एक अल्लाह और उसके आखिरी पैगंबर के प्रति अपनी दृढ़ आस्था वाले जायसी ने पद्मावत की कढ़ाई-बुनाई और सिलाई में रामायण और महाभारत के कथा प्रसंगों को भी प्रेम से गूंथा है। यह खिलजी के बहाने इस्लामी फतह का यशगान बिल्कुल नहीं है।

जायसी के काव्यात्मक वर्णन में अलाउद्दीन खिलजी अपनी फतह पर फख्र करने की बजाए चित्तौड़ की जंग में हुए विनाश पर पछतावा करता हुआ नजर आया है। हालांकि 1303 के इस ऐतिहासिक हमले के बाद भी खिलजी 13 साल तक जिंदा रहा और उसने भारत को दूर दक्षिण तक जिस तरह रौंदा है, वह औरंगजेब के 50 साल पर भारी है। मगर हमें नहीं भूलना चाहिए कि जायसी प्रेम के कवि हैं, इतिहासकार नहीं। उन्हें अपनी काव्य प्रतिभा के पंखों से जीवन के अनंत आकाश में उड़ान भरने की पूरी आजादी है।

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