अक्कड़-बक्कड़ : अनूठा व्यंग्य उपन्यास

समीक्षक - एम.एम.चंद्रा 
 
नवउदारवादी दौर में ग्राम्य जीवन पर बहुत कम उपन्यास लिखे गए हैं। खासकर 1990 के बाद तो ग्रामीण पृष्ठभूमि साहित्य सृजन से लगभग गायब सी हो गई है सुभाष चंदर जी का यह व्यंग्य उपन्यास साहित्य सृजन के इसी खाली पड़ाव को भरने की कोशिश ही नहीं करता बल्कि ग्रामीण जीवन के विशेष युवा वर्ग को ध्यान में रखकर रचा गया उपन्यास है। इसमें उन युवाओं की आकांक्षा, कुंठाओं, विशेषताओं को दर्शाया गया है जो सभी जगह मिल जाते हैं। जैसे- शहर के लम्पट युवक, गांव के वे युवक जिन्हें आवारा, नकारा, काम के न काज के, दुश्मन अनाज के कहा जाता है। जो हर चौराहे, नुक्कड़ और स्कूल-कॉलेज में कम संख्या में होते हुए भी बदनाम रहते हैं।


यह उपन्यास उन युवकों की मनोदशा का भी वर्णन करता है कि बेरोजगार क्या सोचता है, क्या करता है। उपन्यास के युवकों की कहानी आज के बेरोजगार युवकों से मेल खाती है जो नशाखोरी, दबंगई, झपटमारी, दूसरों को बेवकूफ  बनाना, चोरी-चकारी तथा अपनी आकांक्षाओं व महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए साम, दाम, दंड भेद सभी तरह के जुगाड़ करता है। 
 
'मन्नू एंड कंपनी साईकिल पर कब्जा जमा लेते हैं, उन्हें तो बस! साईकिल के नए टायर-ट्यूब और घंटी वगैरह से लगाव था जिसे बिंदा मकेनिक खोलकर उन्हें सौंप देता।' 
 
पांडू एक जगह पर सोचता है कि 'काश गुड्डो का फूफा बीच में न टपका होता तो आठ सौ बीस रुपए की राशि को डेढ़ हजार तक पहुंचा देता।”
 
उपन्यास के माध्यम से बताया गया है कि वैश्वीकरण का असर युवकों के आदर्शो पर किस तरह पड़ता है। 1990 के बाद के युवकों के आदर्श बदल चुके हैं। वे मानवीयता वाले रोजगार नहीं पाना चाहते, वे उस रोजगार को चुनते हैं जिसमें सिर्फ पैसा ही पैसा हो। 
 
'रौब, कमाई, ठुल्लगिरी आदि प्रलोभनों के अलावा कुछ और भी कारण थे जिनके कारण पांडू पुलिस में जाने का इच्छुक था।' 
 
सुभास चंदर जी ने उपन्यास के माध्यम से सरकार द्वारा आदर्श ग्राम बनाने की खोखली योजनाओं की खूब खबर ली।'नंगला तो क्या आस पास के गांव तक के लोग कब्ज आदि उदर रोगों को दूर करने के लिए इस खडंजे पर वाहन चलाते हैं। जब से ललुआ धोबी की गर्भवती बहू ने इस खडंजे के प्रताप से बैलगाड़ी में बच्चे को जनमा तब से लोग खडंजे को और ज्यादा इज्जत देने लगे थे।' 
 
वहीं आज के गांव के सामाजिक, आर्थिक ताने बाने को भी सहज ढंग से प्रस्तुत किया। 
 'क्रम कुछ इस प्रकार का था कि पहले पक्के मकान आते थे जो बामन, बनियों, राजपूत आदि के थे, उसके बाद कच्चे मकानों का नंबर आता था जिन पर पिछड़ी जातियों का कब्जा था और आखिर में झोंपड़ियां आती थी जिनका मालिकाना हक दलितों के पास था।' 
 
उपन्यास में भारतीय रेल और यात्रियों की दुर्दशा को बहुत ही कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया गया है- 
 
'साथ-सत्तर किलोमीटर चलने में रेलगाड़ी ने मात्र 5 घंटे लिए हैं।' 
 
इस उपन्यास की एक खूबी यह भी है कि इसमें आधुनिक मानव के चित्र को बहुत ही रचनात्मकता के साथ उकेरा गया है। पांडू नामक पात्र अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए हृदयहीन व्यक्तित्व का चरित्र निभाता है। वह अपने से गरीब बूढ़े आदमी को भी लूट लेता है जो अपनी बेटी के ससुराल बिना टिकट जाता है. “ला....चालीस ही ला...जानता है.....पुलिस पकड़ लेगी तो सालों जेल में सड़ेगौ.... जब उसकी पेट में चालीस रुपयों का दाना पहुंचा तभी पांडू की हिनहिनाहट रुकी।' 
 
सुभाष चंदर जी की खूबी यह है कि उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के व्यवहारिक भाषा में अपनी बात कही है।  इश्क-विश्क जैसी चीज आज के युवक को सिर्फ अपनी मंजिल या हिडन एजेंडा जैसी मंजिल को पाने का साधन होती है। यह भी आज के युग की सच्चाई है। वैसे सिर्फ लड़के धोखा नहीं देते लड़कियां भी कभी-कभी मसखरी करती हैं।  
 
गुन्नू भी दिल्ली आकर अंतिम बार प्यार में सफल होना चाहता है। एक लड़की लड़की से बात बनी, घूमे-फिरे लेकिन एक दिन लड़की ने गुन्नू को अपने पति और बच्चों से मिलवाया। बेटा, मामा जी नमस्ते करो... ' गुन्नू बेहोश! होश आने पर गुन्नू अपने दोस्तों से बोला : 'यार चंदू दिल्ली की लड़कियां भी कमाल होती हैं, इनकी त्वचा से इनकी उम्र का पता ही नहीं चलता... ”
 
एक पाठक, आलोचक और समीक्षक के नाते इस व्यंग्य उपन्यास की सफलता इसी में है कि यह एक बार में पठनीय है। लेकिन इतनी पठनीयता होने के बाद भी यह पुस्तक किसी को बेहतर आदर्श प्रस्तुत नहीं करती, न ही किसी समस्या का विकल्प देती है। कहा जाता है कि व्यंग्य  अगर सटीक हो तो पाठक स्वयं हल की तरफ बढ़ता है। इस पुस्तक में ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा। हां ! वर्तमान मनुष्य के अंतर्मन में दबी हुई इच्छा, अभिलाषा, अराजकता और उससे उपजे मानवीय व्यवहार का विस्तार अध्ययन करती है। 
 
 
पुस्तक : अक्कड़-बक्कड़ : 
लेखक : सुभाष चंदर 
प्रकाशन : भावना प्रकाशन 
कीमत : 200 रुपए

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