आज बादल बनकर बरस जाना है

डॉ. दिवाकर पोखरियाल 
इस काव्य संग्रह की कविताएं जहाँ एक ओर प्रेरणा का स्त्रोत है, वही दूसरी ओर मन में छुपे नन्हे पौधो का उपवन भी है। हर रचना पाठक को कुछ ना कुछ सोचने पर मज़बूर करती है।  महिलाओं को दिशा दिखाती और हिम्मत देती ये कविताएं एक सुनहरे भविष्य का आगाज़ करने को सक्षम है। इन कविताओं में महिलाए आत्म-विश्वास और धैर्य रखते हुआ आसमान छूने का संदेश पाएँगी। 'आज बादल बन कर बरस जाना है', 'मुश्किलें', 'उम्मीद' और 'एक ख्वाब देखा है मैने' जैसी कुछ रचनाएं उम्मीद और आशा से परिपक्व है और सपने को सच करने की आस दिलाती है। 
 
वे कहती हैं 
 
'ग़म के मलिन कपड़े फाड़कर,
सूरज की पहली किरण सा छा जाना है,
मेरी और नाउम्मीदगी की यह जंग है,-
इसमें मुझे जीत जाना है!
आज बादल बन बरस जाना है!'
 
वही दूसरी ओर वे कहती है-
 
'ख्वाब तो बुलबुलों की तरह
नए नए उगते ही रहेंगे,
और कोई न कोई बुलबुला ऐसा ज़रूर होगा
जो तुम्हें ले जाएगा,
ख्वाइश के बिल्कुल करीब!'
 
इन पंक्तियों में आशा साफ-साफ झलकती है और प्रेरित करती है आगे बढ़ने को। वही 'करार', 'बेल', 'सबूत' जैसी कवितायें इश्क़ की अलग अलग पहलुओं का एहसास करती है जो इन कुछ पंक्तियों में देखा जा सकता है।
 
'भर दे चाशनी
मेरे ज़हन के रस में
कि मीठी हो जाए मेरी रूहानियत,
और खो जाऊं मैं
तुझमें!
तेरे मश्क-ए-जुनूँ में,
तेरे इश्क़ में,
तेरी आशिक़ी में!'
 
और कुछ एहसास ये भी
 
'बारिश का मौसम आने पर,
एक बादल की भी नज़र उसपर पड़ गयी,
और वो अपने प्यार की छींटें
उस बेल पर बरसाने लगा...'
 
ऐसे इश्क़ में डूबी कुछ कविताएं और फिर एक दम से गहरे विचार में डूबी हुई रचनाएं जैसे 'मैं कविता हूँ' और 'औरतें'।
कुछ पंक्तियाँ इन कविताओं में से-
 
'परिवार के साथ चलना
बहुत ही अच्छी बात है,
पर समय का आह्वान है
कि परिवार को भी साथ चलने को अब कहा जाए!'
 
समाज़ के नज़रिए पर कटाक्ष करतें हुए ये पंक्तियाँ गहराई से सोचने पर मज़बूर करती है।
 
एहसासों को अलग अलग रूप देकर उनको शब्दो में ढालना एक कला है और उस शब्दो का दिल को छू जाना दूसरा। नीलम सक्सेना चंद्रा, इन कविताओं द्वारा यह दर्शाती है कि वह इन दोनो कलाओं में निपुण है। हर काव्य पाठक जो कविताओं को गहराई से देखता है और एहसास करता है, इस काव्य संग्रह को ज़रूर पसंद करेगा। मुझे आशा है इनकी रचनाएं और भी ज़्यादा आएं और काव्य के मौसम को और बढ़ाए।

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