पुस्तक समीक्षा : क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती

आरिफा एविस 
‘क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती’ डॉ. शिखा कौशिक ‘नूतन’ द्वारा लिखा गया लघु कथा संग्रह है जिसमें स्त्री और पुरुष की गैर बराबरी के विभिन्न पहलुओं को छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से सशक्त रूप में उजागर किया है।


इस संग्रह में हमारे समाज की सामंती सोच को बहुत ही सरल और सहज ढंग से प्रस्तुत किया है, खासकर महिला विमर्श के बहाने समाज में उनके प्रति सोच व दोयम दर्जे की स्थिति को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। फिर मामला चाहे अस्तित्व का हो या अस्मिता का ही क्यों न हो। 
 
लेखिका डॉ. शिखा कौशिक ‘नूतन’ अपनी कथाओं के जरिए बताती हैं कि बेशक आज देश उन्नति के शिखरों को चूम रहा हो, लेकिन असल में लोगों की सोच अभी भी पिछड़ी, दकियानूसी और सामंती है। इसी सोच का नतीजा है कि हमारे समाज में आज भी महिलाओं को हमेशा कमतर समझा जाता है। किसी भी किस्म की दुश्मनी का बदला औरत जात को अपनी हवस का शिकार बनाकर ही किया जाता है, फिर मामला चाहे सांप्रदायिक हो या जातिगत -“जिज्जी बाहर निकाल उस मुसलमानी को!! ...हरामजादों ने मेरी बहन की अस्मत रौंद डाली...मैं भी नहीं छोडूंगा इसको...!!!
 
लेखिका ने समान रूप से काम करने वाले बेटे-बेटी के बीच दोहरे व्यवहार को बखूबी दर्शाया है जो अक्सर ही हमारे परिवारों में देखने, सुनने या महसूस करने को मिल जाता है- “इतनी देर कहां हो गई बेटा? एक फोन तो कर देते! तबियत तो ठीक है ना ? बेटा झुंझलाकर बोला- ओफ्फो... आप भी ना पापा... अब मैं जवान हो गया हूं ... बस ऐसे ही देर हो गई। पिता ठहाका लगाकर हंस पड़े। अगले दिन बेटी को घर लौटने में देर हुई तो पिता का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच गया। बेटी के घर में घुसते ही पूछा ...घड़ी में टाइम देखा है! किसके साथ लौटी हो?....पापा वो ऐसे ही... बेटी के ये कहते ही उलके गाल पर पिता ने जोरदार तमाचा जड़ दिया।”
 
डॉ. शिखा ने भारतीय समाज में व्याप्त लिंगीय भेदभाव पर बहुत ही तीखा प्रहार किया है और उन मिथकों को तोड़ने की भरसक कोशिश की है, जो एक स्त्री होने की वजह से हर दिन झेलती है। लेखिका इस बात पर शुरू से लेकर अंत तक अडिग है कि औरत ही औरत की दुशमन नहीं होती, बल्कि सामाजिक तथा आर्थिक सरंचना से महिलाएं सामंती एवं पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रसित हो जाती हैं - “ऐ... अदिति... कहां चली तू? ढंग से चला फिरा कर... बारवें साल में लग चुकी है तू... ये ढंग रहे तो तुझे ब्याहना मुश्किल हो जाएगा। कूदने-फांदने की उम्र नहीं है तेरी।

दादी के टोकते ही अदिति उदास होकर अंदर चली गई। तभी अदिति की मम्मी उसके भाई सोनू के साथ बाजार से शॉपिंग कर लौट आईं। सोनू ने आते ही कांच का गिलास उठाया और हवा में उछालने लगा....गिलास फर्श पर गिरा और चकनाचूर हो गया। सोनू पर नाराज होती हुई उसकी मम्मी बोली - “कितना बड़ा हो गया है अक्ल नहीं आई! ...अरे चुपकर बहु एक ही बेटा तो जना है तूने ...उसकी कदर कर लिया कर... अभी सत्रहवें ही में तो लगा है... खेलने-कूदने के दिन हैं इसके...।”
 
प्रेम करना आज भी एक गुनाह है। अगर किसी लड़की ने अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुना तो परिवार व समाज उसके इस फैसले को कतई मंजूरी नहीं देते, बल्कि इज्जत और मर्यादा के नाम पर उसको मौत के घाट उतार दिया जाता है। प्रेम के प्रति लोगों की सोच को नूतन कुछ इस तरह व्यक्त करती हैं - “याद रख स्नेहा जो भाई तेरी इज्जत की बचाने के लिए किसी की जान ले सकता है वो परिवार की इज्जत बचाने की लिए तेरी जान ले सकता है।...स्नेहा कुछ बोलती इससे पहले ही आदित्य रिवाल्वर का ट्रिगर दबा चुका था।”
 
हमारे समाज में आज भी लोगों के मन में जातिवाद घर बनाए हुए है। जातिवाद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में हमारे सामने आ ही जाता है। स्कूल, कॉलेज, नौकरी-पेशा, शादी-विवाह या किसी भी कार्यक्रम के आयोजन ही क्यों न हो जाति कभी पीछा नहीं छोड़ती - “जातिवाद भारतीय समाज के लिए जहर है। इस विषय के संगोष्ठी के आयोजक महोदय ने अपने कार्यकर्ताओं को पास बुलाया और निर्देश देते हुए बोले - देख! वो सफाई वाला है ना, अरे वो चूड़ा... उससे धर्मशाला की सफाई ठीक से करवा लेना। वो चमार का लौंडा मिले....उससे कहना जनरेटर की व्यवस्था ठीक-ठाक कर दे। बामन, बनियों, सुनारों, छिप्पियों इन सबके साइन तू करवा लियो... ठाकुर और जैन साहब से कहियो कुर्सियों का इंतजाम करने को।” 
 
किसी भी स्त्री और पुरुष की ताकत, हुनर, पहलकदमी, तरक्की को देखने का नजरिया एकदम अलग-अलग होता है। लेकिन स्त्री जाति के विषय में बात एकदम अलग है, क्योंकि किसी भी स्त्री को डर, धमकी या मार द्वारा उसके लक्ष्य से कोई भी डिगा नहीं सकता। सिर्फ पुरुषवादी सोच ही स्त्री को चरित्रहीन कहकर ही उसको अपमानित करती है। “रिया ने उत्साही स्वर में कहा, जनाब मुझे भी प्रोमोशन मिल गया है। ‘अमर’ हां, भाई क्यों न होता तुम्हारा प्रोमोशन, तुम खूबसूरत ही इतनी हो।”
 
डॉ. शिखा कौशिक ने लगभग 117 लघु कथाओं की शिल्प शैली लघु जरूर है लेकिन उनकी विचार यात्रा बहुत ही गहरी और विस्तृत है। लेखिका ने ग्रामीण परिवेश और उसकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना में रची बसी विकृतियों, समस्याओं और जटिलताओं को पाठकों तक पहुंचाने का काम करके स्त्री विमर्श के विभिन्न पहलुओं को चिन्हित किया है।
 
 
पुस्तक : क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती
लेखिका : डॉ.शिखा कौशिक ‘नूतन’ 
प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन 
कीमत : 120 

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