मुस्लिम मन का आईना

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कहते हैं एक अच्छी पुस्तक वह है जो आशा के साथ शुरू हो और लाभ के साथ खत्म। इस कहावत को चरितार्थ करती है राजमोहन गाँधी की पुस्तक 'मुस्लिम मन का आईना'। मूल रूप से यह पुस्तक ' अंडरस्टैंडिंग द मुस्लिम माइंड' के नाम से वर्ष 1986 में अमेरिका से प्रकाशित हुई । 1987 में 'पेंगुईन प्रकाशन' ने इसे प्रकाशित किया।


  पुस्तक बड़ी खूबी से दोनों पक्षों की उलझनों और भ्रामक धारणाओं पर चोट करती है । यहाँ तक कि इतिहास के कड़वे तथ्य भी औषधि समझ कर निगलना जरूरी हो जाता है।      
राजकमल प्रकाशन ने इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित किया है। अरविन्द मोहन के उम्दा अनुवाद में यह पुस्तक एक विशिष्ट अनुभूति का अहसास देती है। थोड़ा सा डर, थोड़ा सा भ्रम और अनंत जिज्ञासाओं के साथ पुस्तक आँखों के सामने से गुजरी और'लाभ' के साथ-साथ मानस का 'भला' भी कर गई।

लेखक ने पुस्तक की सृजन प्रक्रिया को इस तरह स्पष्ट किया कि - ' जब मैंने 'अंडरस्टैंडिंग द मुस्लिम माइंड' लिखी तब मैं विद्वता के सभी मापदंडों से परिचित था लेकिन मैं नहीं चाहता था कि तमाम सारे अप्रिय तथ्यों को झूठी एकता की मखमली चादर के नीचे छुपा दूँ। यह पुस्तक दो समुदायों के बीच आपसी समझ की दूरी को कम करने की एक कोशिश है।'

इस ईमानदार आत्मकथ्य के साथ मानना होगा कि लेखक ने मुस्लिम मन को समझने का एक गंभीर प्रयास किया है। यह प्रयास सफल भी रहा है।

लेखक ने विगत 100 वर्षों में उपमहाद्वीपीय मंच पर प्रभावशील रहे आठ मुसलमान शख्सियतों को चुना और उनके जीवन और विचारधाराओं के माध्यम से वे इस पुस्तक लेखन के मुकाम तक पहुँचे। यह आठ मुस्लिम हस्ती है - सर सैयद अहमद खाँ, मुहम्मद इक़बाल, मुहम्मद अली, मुहम्मद अली जिन्ना, फज़्जुल हक़, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद , लियाकत अली खाँ, एवं जाकिर हुसैन।

लेखक ने अलग-अलग खंडों के माध्यम से न सिर्फ इन विद्वानों के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व को गलतफहमियों के जाल से निकाला है बल्कि निडरता और निष्पक्षता से पाठक के सामने ला खड़ा किया है। प्रस्तु‍ति इतनी सरस है कि पढ़ते हुए नहीं लगता कि लेखक समुदाय-विशेष के प्रति किसी तरह का दबाव बना रहा है। निर्णय पाठक के स्वविवेक पर छोड़ा है ताकि वे स्वयं अपना संतुलित निष्कर्ष निकाल सके।

पुस्तक बड़ी खूबी से दोनों पक्षों की उलझनों और भ्रामक धारणाओं पर चोट करती है । यहाँ तक कि इतिहास के कड़वे तथ्य भी औषधि समझ कर निगलना जरूरी हो जाता है।

  जब मैंने 'अंडरस्टैंडिंग द मुस्लिम माइंड' लिखी तब मैं विद्वता के सभी मापदंडों से परिचित था लेकिन मैं नहीं चाहता था कि तमाम सारे अप्रिय तथ्यों को झूठी एकता की मखमली चादर के नीचे छुपा दूँ।      
लेखक ने हिन्दू -मुस्लिम दरार के लिए उस इतिहास पर अँगुली उठाई है जो आधा-अधूरा लिखा जाकर हमें विरासत में मिला है। जैसे पेंगुईन प्रकाशन के प्रथम संस्करण की आरम्भिक पंक्तियों में यह आशंका स्पष्ट है - 'भारत-पाकिस्तान के बीच कोई भी परमाणु टकराहट यदि हुई(ईश्वर ना करें ऐसा हो) तो वह इतिहास के कारण ही होगी।

लेखक समझाना चाहता है कि हिन्दू-मुस्लिम और भारत-पाकिस्तान के सवाल दो भिन्न मामले हैं। भारत में रहने वाले मुसलमानों की संख्या पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमानों के बराबर या उससे ज्यादा है। स्वस्थ भारत-पाक संबंधों और दोनों देशों के कल्याण के लिए यह बेहद जरूरी है कि मुसलमान हिन्दुओं के और हिन्दू मुसलमानों के मानस को समझे। हमारा इतिहास कभी आपसी द्वेष और शंकाओं को खत्म नहीं होने देगा।

एक गैर पक्षपातपूर्ण नज़रिया हमें कम से कम हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के रास्ते की रूकावटों के बारे में बता सकता है । साथ ही यह भी बता सकता है कि इतिहास में क्या कुछ गलत हुआ था और क्यों । यही जानकारी हमें हमारी बाधाओं को समाप्त करने में मददगार हो सकती है।

यदि हम उस समय का अध्ययन करें जब दूसरा पक्ष भी उदार ह्रदय था और उस समय जब हमने भी संकीर्ण नज़रिया अपनाया था। यह चेतना ,चाहे हम मुसलमान हों या हिन्दू , हमारे द्वेष को कम कर सकती है।

जिन आठ लोगों के माध्यम से पुस्तक इतिहास के रहस्यों को हमारे समक्ष खोलती है उनमें से कुछ लोग रूढ़ इतिहासशास्त्र के साम्प्रदायिक कहे जाते हैं।

मुगलकालीन मान्यताओं को समेटते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया कि लोकतंत्र के प्रति क्यों मुस्लिम मन आशंकित था । उनके अनुसार चूँकि हिन्दू बहुसंख्यक समुदाय के थे , मुसलमानों को लगा कि लोकतंत्र का मतलब होगा हिन्दू शासन। और कोई भी मुसलमानों को यह समझाने में सफल नहीं रहा कि स्वशासन का मतलब भारतीयों का राज होगा, न कि हिन्दू राज। लेकिन शासन में भागीदारी की बात भारतीय मुस्लिम मानस के अनुभव से बाहर की चीज थी ।


  लेखक समझाना चाहता है कि हिन्दू-मुस्लिम और भारत-पाकिस्तान के सवाल दो भिन्न मामले हैं। भारत में रहने वाले मुसलमानों की संख्या पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमानों के बराबर या उससे ज्यादा है।      
650 वर्षों के इतिहास से उसने जाना था कि शासक का मतलब क्या होता है और अंग्रेजों के शासन में उसने जाना था कि गुलामी का मतलब क्या होता है । उन्होंने खुद से सवाल भी किया कि इस बात ‍की क्या गारंटी है कि ‍िहन्दू राज उन्हें ब्रिटिश राज से बेहतर स्थिति में रखेगा ?

बहरहाल आठ चर्चित हस्तियों के माध्यम से मुस्लिम मन को पढ़ने की यह एक सशक्त कोशिश कही जाएगी जो परत-दर-परत हर भारतीय पाठक के मन से धूल साफ करने में समर्थ है चाहे वह किसी भी संप्रदाय का हो।

'द टेलिग्राफ' में एम. वी. कामथ ने लिखा है - 'राजमोहन गाँधी की यह विशिष्ट पुस्तक ...हिन्दू-मुस्लिम संबंधों के विषय में उन प्रश्नों के प्रति हमें जागरूक करती है ,जो आज तक अनुत्तरित रहे हैं।


मुंबई हमलों के बाद आवश्यक हो जाता है कि एक बार फिर पड़ोसी मुल्क अशोभनीय हरकतों से बाज आकर ‍‍निष्पक्ष होकर अपने ही मानस का विश्लेषण करें और हमारे सत्तासीन महारथी(?) भी पारस्परिक द्वेष भावना को और अधिक पोषित ना करते हुए एक नई सोच का आगा़ज़ करें जो कम से कम राष्ट्र को छिन्न-भिन्न होने से बचा सके । एक बेहद सुलझी हुई पुस्तक का हर समझदार पाठक को स्वागत करना चाहिए। मूल्य अधिक है किन्तु पुस्तक पढ़ने के बाद वसूल हो जाता है।


पुस्तक : मुस्लिम मन का आईना
लेखक : राजमोहन गाँधी
अनुवादक : अरविन्द मोहन
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
1- बी , नेताजी सुभाष मार्ग
नईदिल्ली
मूल्य : 450 /-

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