आज एक परिचित का फोन आया कि उनकी बेटी को एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेना है और टॉपिक है- 'अंग्रेजी भारत में इतनी समृद्धशाली क्यों हो रही है'। उन्होंने कहा कि आप जरा इस विषय पर लिखकर बेटी को भेज दें। मैंने सोचा कि चलो इसका विश्लेषण किया जाए कि क्यों अंग्रेजी बगैर किसी हो-हल्ले के भारतीय मस्तिष्क पर अपना कब्जा जमा रही है।
लगभग 37.5 करोड़ लोग अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रूप में बोलते हैं। स्थानीय वक्ताओं की संख्या के हिसाब से मंदारिन चीनी और स्पेनिश के बाद वर्तमान में संभवत: अंग्रेजी ही तीसरे नंबर पर आती है। हालांकि यदि स्थानीय और गैर-स्थानीय वक्ताओं को मिला दिया जाए तो यह संभवत: दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन जाएगी, परंतु यदि चीनी भाषा के मिश्रणों को जोड़ा जाए तो यह संभवत: दूसरे स्थान पर रहेगी। अंग्रेजी के प्रयोग के इतना विस्तृत होने के कारण इसे अक्सर 'वैश्विक भाषा' भी कहा जाता है।
हालांकि अधिकांश देशों में यह आधिकारिक भाषा नहीं है, फिर भी वर्तमान में दुनियाभर में अक्सर इसको द्वितीय भाषा के रूप में सिखाया जाता है। कुछ भाषाविदों का विश्वास है कि यह भाषा अब 'स्थानीय अंग्रेजी वक्ताओं' की सांस्कृतिक संपत्ति नहीं रह गई है, बल्कि अपने निरंतर विकास के साथ यह दुनियाभर की संस्कृतियों का अपने में समायोजन कर रही है। अंतरराष्ट्रीय संधि द्वारा यह हवाई और समुद्री संचार का माध्यम है। अंग्रेजी भाषा और इसकी वर्णमाला दोनों की ही लोकप्रियता भारतीय समुदाय में बढ़ती जा रही है, कुछ हद तक इसका कारण है प्रौद्योगिकी में इनकी भूमिका।
किसी भाषा की सबल अथवा कमजोर अवस्था का पता लगाने के लिए यूनेस्को के 2003 में छपे दस्तावेज (भाषीय प्राणशक्ति और खतरे की अवस्था) में निचले 9 कारक दिए गए हैं, जिनके आधार पर किसी भाषा की ताकत अथवा उस पर छाए संकट को आंका जा सकता है-
1. पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचार।
2. बोलने वालों की गिनती।
3. कुल आबादी में बोलने वालों का अनुपात।
4. भाषीय प्रयोग के क्षेत्रों में प्रचलन।
5. नए क्षेत्रों और संचार माध्यमों को स्वीकृति।
6. भाषीय शिक्षा और साक्षरता के लिए सामग्री उपलब्ध होना।
7. सरकारों और संस्थानों का भाषा के प्रति रवैया और नीतियां (सरकारी रुतबा और प्रयोग सहित)।
8. भाषीय समूह की ओर से अपनी भाषा के प्रति रवैया।
9. प्रलेखीकरण (documentation) की किस्म और गुणवत्ता लिए आधिकारिक भाषा है।
भारत में भी अंग्रेजों ने भाषा को व उपनिवेशवाद ने मानसिक गुलामी के साधन के रूप में हर जगह और हमेशा इस्तेमाल किया और अंग्रेजी को इसका मुख्य साधन बनाया। इस प्रक्रिया के शिकार भारतीय मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लोग हुए जिसके परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान और शासन की भाषा बन गई। भारत में 1991 में उदारीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। शिक्षा बाजारोन्मुखी हुई, अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थानों की बाढ़-सी आ गई। हिन्दी का प्रभाव और वर्चस्व धूमिल होता गया।
जब से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, तब से भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी भाषा का महत्व बढ़ा है। आजकल मुक्त व्यापार और भूमंडलीकरण के समर्थक एक ओर अंग्रेजी माध्यम से अंतरराष्ट्रीय होने और बनने की कोशिश कर रहे हैं।
भारत में अंग्रेजी कभी भी जनशिक्षा का माध्यम नहीं हो सकती है। अंग्रेजी में निपुणता बहुतों के लिए अप्राप्य है तथा एक विशाल जनसमूह को असामान्य प्रतिस्पर्धा की स्थिति प्रदान करती है। प्रशासन व संभ्रांत पेशों की भाषा के रूप में भारतीयों पर अंग्रेजी थोपे जाने के 150 साल बीत जाने पर भी हमारी आबादी के 1 प्रतिशत लोग भी इसे प्रथम या द्वितीय भाषा के रूप में प्रयोग नहीं करते। यहां तक कि शिक्षित भारतीयों में भी अंग्रेजी तीसरे स्थान पर है। भारत में लगभग 45 प्रतिशत लोग हिन्दीभाषी राज्यों से आते हैं जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, कश्मीर, असम, पंजाब, बंगाल, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा में एक बड़ी संख्या में लोग हिन्दी का व्यावहारिक ज्ञान रखते हैं।
भारतीय औपनिवेशिक भाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रसार अमेरिका पर ब्रिटिश प्रभुत्व से शुरू हुआ। यह अवधि यूरोप में उग्र राष्ट्रवाद की थी। इसी चेतना से अंग्रेजी का प्रचार किया गया जिसे एक समृद्ध तकनीक सुलभ भाषा द्वारा पिछड़े हुए शेष सभ्यताकरण के रूप में व्याख्यायित किया गया। आज भी अंग्रेजी की पहचान तकनीकी श्रेष्ठता और आधुनिक सभ्यता के स्रोत के रूप में अपरिहार्य स्थिति की तरह मौजूद है।
वैश्वीकरण के इस सघन और उत्कट समय में वह मीडिया कि एकमात्र वर्चस्वशाली भाषा और उच्च तकनीकी विकास का स्रोत बनने के अलावा आधुनिकता के मूल्यों के वाहक भी मानी जा रही है। सूचनाओं के आदान-प्रदान की सुविधा और बहुराष्ट्रीय निगमों में रोजगार की कुंजी के रूप में उसकी सबलता विश्वव्यापी है। अंग्रेजी को हटाने की बात उठते ही यह सवाल पूछा जाता है कि उसकी जगह किस भाषा को लाया जाए? भारत जैसे बहुभाषी देश में ऐसे सवालों का उठना स्वाभाविक है।
प्रख्यात लेखिका मधु किश्वर के अनुसार 'पिछली एक शताब्दी से हमारी शिक्षा पद्धति पर अंग्रेजी की प्रभावी पकड़ होने के बावजूद बहुत छोटी-सी संख्या ऐसी है, जो प्रभावी एवं सही तरीके से यह भाषा बोल सकने में समर्थ है। यहां तक कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग की भी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है। हमारे अधिकांश परास्नातक और शोध उपाधि प्राप्त लोग अंग्रेजी में सही तरीके से 3 वाक्य भी नहीं लिख सकते। यद्यपि उन्होंने अपनी सारी परीक्षा अंग्रेजी में ही दी होती है फिर भी वे अंग्रेजी के पीछे भागते हैं, क्योंकि अंग्रेजी का दिखावा भारतीय भाषाओं की तुलना में ज्यादा प्रभावी है। यही कारण है कि आज देश के लोग मध्य एवं निम्न मध्य वर्ग अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा भी अंग्रेजी में दिलाने के लिए सभी प्रकार के सामाजिक व आर्थिक त्याग करने को तैयार हैं।'
भारतीयों के अपनी भाषाओं के प्रति रवैये को देखें तो ये बड़ी चिंता के कारण हैं। सत्ता, समाज और आर्थिक ढांचे में प्रभुत्वशाली वर्ग की भाषा ही प्रभुत्वशाली भाषा होती है और जनसाधारण उसी भाषा को सम्मानित भाषा समझता है। भारत का ताकतवर वर्ग ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी और किसी हद तक हिन्दी की तरफ खिंचा जा रहा है। अंग्रेजी की ओर खिंचे जाने का बड़ा कारण ताकतवर वर्ग का स्वार्थ है, जो अंग्रेजी भाषा द्वारा शिक्षा, सत्ता और आर्थिकता के सभी क्षेत्रों में अपनी धौंस कायम रखना चाहता है। चेतना की कमी के कारण जनसाधारण प्रभुत्वशाली वर्ग की सत्ता और समृद्धि का एक कारण अंग्रेजी भाषा को समझे बैठा है।
प्रभुत्वशाली वर्ग के स्वार्थ के साथ-साथ राजकीय और प्रशासनिक क्षेत्रों में भाषा नीति के प्रति अज्ञानता भी पौष महीने की अमावस की आधी रात के घोर अंधेरे की तरह छाई हुई है। नतीजे के तौर पर भारतीयों का अपनी भाषाओं के प्रति रवैया कुछ चेतन्य क्षेत्रों को छोड़कर निराशा पैदा करने वाला ही है।
भारतीय भाषाओं जैसी महान भाषाओं के वारिसों के लिए तो आवश्यकता इस सवाल पर चर्चा करने की होनी चाहिए कि भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, चीनी, अरबी, स्पेनी जैसी ज्यादा चर्चित भाषाओं के बराबर का रुतबा वर्तमान में कैसे दिलवाया जाए। यह बहुत थोड़े सामूहिक प्रयत्नों से संभव है। आवश्यकता बस इसके लिए कायल होने की है।
इंटरनेट और कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी ने हर भाषा के बोलने वालों के हाथ में ऐसा हथियार दे दिया है कि किसी भी भाषा को पहले से कहीं कम प्रयत्नों से ऊंचाई पर पहुंचाया जा सकता है। यहां हिब्रू भाषा की मिसाल उत्साह देने वाली है। बाइबल की भाषा हिब्रू बोलचाल में से लोप हो चुकी भाषा थी, पर यहूदी समूह ने विद्यालयों में अपने साधारण से प्रयत्नों से इस को जीवंत भाषा बना दिया है। ऐसे ही यूनेस्को ने अपने प्रयत्नों से कई और भाषाओं को लोप होने से बचाकर विकास के मार्ग पर ला दिया है।
भाषा एक सामाजिक व्यवहार है और इसके बारे में अंदाजों में अंतर्मुखता के कुछ तत्व समाविष्ट होना स्वाभाविक है इसलिए आवश्यकता है कि यूनेस्को की ओर से पेश कारणों के आधार पर भारतीय भाषाओं की स्थिति का और गहन और विस्तृत मूल्यांकन किया जाए।
यह सुझाव भी उचित होगा कि भाषा विशेषज्ञ और भारतीय भाषाओं के विशेषज्ञ मिलकर संबंधित मुद्दों पर गहरी विचार-चर्चा कर राय बनाएं, जो भारतीयों को इन सवालों के बारे में स्पष्टता प्रदान कराए। यह स्पष्टता भारतीय भाषाओं के लिए आवश्यक प्रयत्नों की नींव रखने में सहायक होगी।