हिन्दी का राजभाषा का दर्जा खत्म हो

हिन्दी के अबाध विस्तार के लिए जरूरी है कि इसे मिला राजभाषा का दर्जा खत्म हो और स्वयं हिन्दी अपने इर्द-गिर्द की 126 भाषाओं को अनिवार्य महत्व दें। यह बात जाने-माने भाषा-विज्ञानी, लेखक और भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण करने वाले गणेश एन देवी ने कही।

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उन्होंने कहा 'हिन्दी के विकास के लिए आवश्यक है कि उसे मिला राजभाषा का दर्जा खत्म हो। इससे इस समृद्ध भाषा को लेकर बेवजह पैदा हुआ वैमनस्य खत्म होगा और वह राजभाषा की सीमाओं से उपर उठ सकेगी तथा अपने आस-पास की भाषाओं से शक्ति प्राप्त कर सकेगी।'



प्रसिद्ध आलोचक और विद्वान नामवर सिंह ने इस संदर्भ में कहा 'मैं इस बात से शत-प्रतिशत सहमत हूं। दक्षिण से उत्तर तक राजभाषा के नाम पर फैले साम्राज्य का इस्तेमाल सिर्फ निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए हो रहा।

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वैसे भी ऐसी व्यवस्था स्वतंत्रता के पश्चात कुछ वर्षों के लिए की गई थी, इसे इतने लंबे समय तक बरकरार रखने से हिन्दी में भाषा के तौर पर जड़ता की आशंका पैदा हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।'

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित देवी ने कहा हिन्दी के प्रसार की संभावना के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। यह मंदारिन (चीनी) और अंग्रेजी के बाद विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसलिए इसे अंग्रेजी से आतंकित होने की कोई जरूरत नहीं है।



पिछले दो दशक में भारत जिस वैश्वीकरण की प्रक्रिया से जुड़ा है उसके कारण अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार बढ़ा और राजभाषा की चमक फीकी पड़ी। लेकिन इसी बाजार की जरूरत ने उसे अलग तरह के प्रसार का मौका दिया जिसका एक नमूना है मीडिया में हिन्दी का बढ़ता दखल।

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हिन्दी के विस्तार के संबंध में देवी ने कहा कि यदि 1961 को पैमाना मानें तो वैश्विक स्तर पर हिन्दी को मातृभाषा कहने वालों की तादाद 26 करोड़ थी जिनकी तादाद 2001 में 16 करोड़ बढ़कर 42 करोड़ हो गई।

इधर अंग्रेजी को मातृभाषा मानने वालों की तादाद जो 1961 में 33 करोड़ थी उसमें भी 16 करोड़ का ही इजाफा हुआ और 2001 में संख्या बढ़कर 49 करोड़ हो गई। इसका मतलब है कि अनुपात के लिहाज से हिन्दी का प्रसार ज्यादा हुआ।

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