फिर विवाद में ‘भारत भवन’ भोपाल, लेखक पंकज सुबीर ने पक्षपात को लेकर लगाए आरोप, साहित्यिक संस्थाओं को लिखा पत्र
शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022 (15:52 IST)
साहित्यकार पंकज सुबीर ने भारत भवन भोपाल के इस्तेमाल को लेकर पक्षपात के आरोप लगाए हैं। उन्होंने इस पक्षपात का विरोध करते हुए साहित्यिक संस्थाओं को एक पत्र लिखा है। जिसमें उन्होंने कई आरोप लगाए और उन्हें लेकर सवाल पूछे हैं। पंकज सुबीर ने अपने फेसबुक वॉल पर इस पत्र को शेयर किया है।
भोपाल के सम्माननीय साथियों और साहित्यिक संस्थाओं के नाम एक पत्र- प्रिय साथियों, नमस्कार
आप सब भोपाल में साहित्यिक आयोजन करते रहते हैं। और भोपाल की साहित्यिक संस्थाओं के आयोजन पहले भारत भवन में भी आयोजित किए जाते रहे हैं। लेकिन कुछ वर्ष पूर्व भारत भवन के प्रबंधक निकाय ने यह फैसला लिया कि भारत भवन में केवल वही आयोजन होंगे, जो भारत भवन के अपने आयोजन होंगे, बाहर की संस्थाओं को आयोजन करने के लिए भारत भवन नहीं प्रदान किया जाएगा।
इस बात की जानकारी मुझे वहां के मुख्य कार्यकारी अधिकारी महोदय ने प्रदान की थी,जब मैं वर्ष 2019 में एक आयोजन के लिए भारत भवन के लिए आवेदन देने गया था। ख़ैर, मैंने तो अब सोच लिया है कि भोपाल के स्थान पर अपने शहर सीहोर में ही आयोजन किया जाएगा, तथा इसी वर्ष सफलतापूर्वक 4 जून को ऐसा किया भी गया। भोपाल के साथियों का शुक्रिया कि उन्होंने बड़ी संख्या में सीहोर के इस कार्यक्रम में उपस्थित होकर इस निर्णय को संबल प्रदान किया।
लगभग 500 की बैठक क्षमता के सभागार में आधे से अधिक अतिथि भोपाल से आए हुए साहित्य समाज के मित्र थे। इसने एक प्रकार की स्वीकृति भी प्रदान की मेरे शहर सीहोर को। पिछली बार भी मैंने आवाज़ उठाई थी और इस बार भी उठा रहा हूं। मैं भारत भवन के अपने किसी भी कार्यक्रम में केवल एक बार वर्ष 2010 में 'युवा' में गया हूं, उसके बाद से अब तक न गया हूं न जाने की इच्छा है। उसमें भी मुझे नहीं बुलाया गया था मेरे ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार को बुलाया गया था, जो उसी वर्ष मुझे मिला था। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के ढेर सारे पुरस्कारों के लिए मैंने आज तक न अपनी कोई किताब भेजी है, न ही आगे भेजूंगा। (बहुत विनम्रतापूर्वक अनुरोध है कि इसे मेरे दंभ के रूप में न देखा जाए, बस व्यक्तिगत असहमति के रूप में लिए गए निर्णय के रूप में लिया जाए। हालांकि मैं जानता हूं कि ऐसा कहना हमेशा दंभोक्ति की तरह दिखाई देता है। यदि ऐसा लग रहा है तो पहले से ही क्षमा चाहता हूं।)
2003 के बाद से भारत भवन, साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएं बस एक ख़ास विचारधारा के लिए सुरक्षित और संरक्षित हो गई हैं। जिस विचारधारा से मेरी असहमति है और आगे भी रहेगी। मेरे जैसे बहुत से मध्यमार्गी हैं, जिनको एक विचारधारा बहुत असानी से दूसरी विचारधारा का और दूसरी विचारधारा वाले पहली विचारधारा का कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन इससे हम अपनी भूमिका नहीं बदल सकते, न अपने तेवर।
भारत भवन के प्रबंधक निकाय ने कुछ वर्ष पूर्व यह फैसला लिया है कि बाहर की संस्थाओं को भारत भवन नहीं प्रदान किया जाएगा। यह फ़ैसला भी इसलिए लिया गया है कि भोपाल की अधिकांश संस्थाएं उस विचारधारा की विरोधी हैं, जिस विचारधारा से मध्यप्रदेश में सरकारी संस्थाओं को चलाया जा रहा है। ऐसे में आयोजनों में विचारधारा का विरोध आ ही जाता है। तो न रहेगा बांस न बजेगी विरोध की बांसुरी की तर्ज पर बाहरी संस्थाओं पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया।
जो आवाज़ पिछली बार मैंने उठाई थी वह इस बार भी उठा रहा हूं। कि यदि यह फ़ैसला ले लिया गया है तो फिर 2022 की तरह इस बार एक फिर से 13-15 जनवरी 2023 में भारत भवन में 'भोपाल लिटरेचर एंड आर्ट फेस्टिवल' (बीएलएफ़) करने की स्वीकृति एक निजी संस्था सोसायटी फॉर कलचर एंड एन्वायरमेंट को किस आधार पर दी गई है (जैसा उनकी वेबसाइट पर दिखाई दे रहा है कि कार्यक्रम स्थल 'अंतरंग' तथा 'रंगदर्शिनी' हैं, जो भारत भवन में ही हैं।)
मेरे चार बहुत साधारण से प्रश्न हैं -
1 क्या इस स्वीकृति का आधार यह है कि यह संस्था वर्तमान तथा पूर्व आईएएस अधिकारियों, अन्य अधिकारियों तथा उनके परिजनों के द्वारा चलाई जा रही है?
यदि हां, तो क्या अन्य साहित्यिक संस्थाओं को भी भारत भवन में कार्यक्रम करने के लिए अपने पदाधिकारियों में पूर्व या वर्तमान आईएएस अधिकारी, अन्य अधिकारियों या उनके परिजनों को शामिल करना होगा?
2 क्या इस स्वीकृति का आधार यह है कि मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग इस कार्यक्रम में सहयोगी रहता है? (जैसा कि मेरे पिछले बार के विरोध के बाद आयोजक संस्था ने तुरत-फुरत एक पत्रकार वार्ता कर के पत्रकारों को जानकारी प्रदान करते हुए बताया था।)
यदि हां, तो मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग तो भोपाल में अन्य साहित्यिक संस्थाओं के आयोजनों में सहभागी रहता है, जैसा उनके आयोजनों के बैनर, पोस्टर से पता चलता है, तो उनको भारत भवन के उपयोग की अनुमति क्यों नहीं है। जबकि इन संस्थाओं के आयोजन पूर्व में भारत भवन में होते रहे हैं। एक ही नियम अलग-अलग संस्थाओं के लिए अलग-अलग तरीक़े से लागू होने का कारण क्या है?
3 भारत भवन एक साहित्यिक, सांस्कृतिक परिसर है, जहां किसी भी प्रकार के भोजन कार्य, भोजन बनाना तथा खिलाना (कार्यक्रम से पूर्व या पश्चात् दिए जाने वाले चाय, कॉफ़ी, बिस्किट जैसे अल्पाहार जो परिसर में ही स्थित जलपान गृह से बना कर लाए जाएंगे तथा यहां केवल परसे जाएंगे, को छोड़कर) की अनुमति नहीं है, क्या यह बात सत्य है?
यदि हां, तो सोसायटी फॉर कलचर एंड एन्वायरमेंट को भारत भवन परिसर में तीन दिनों तक परिसर में पांडाल लगा कर शादियों की तरह भोजन व्यवस्था की स्वीकृति किस आधार पर प्रदान की गई है?
4 इस संस्था द्वारा दिए गए कार्यक्रमों की सूची में लगभग सारे कार्यक्रम अंग्रेज़ी भाषा के ही हैं, तो क्या यह स्वीकृति इस आधार पर दी गई है कि अंग्रेज़ी में होने वाले कार्यक्रम प्रबंधक निकाय द्वारा लिए गए उस निर्णय से बाहर रहते हैं, केवल हिन्दी के आयोजन की प्रतिबंध के दायरे में आते हैं?
यदि हां, तो क्या भोपाल की हिन्दी साहित्य संस्थाएं भी अपने आयोजन अंग्रेज़ी में करना प्रारंभ कर दें, तो उनको भी भारत भवन के उपयोग की स्वीकृति प्रदान कर दी जाएगी?
भोपाल के साथियों, मैं तो सीहोर में रहता हूं और अपने आयोजन भी वहीं करते रहने का निर्णय ले चुका हूं। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि नियमों को सूर्य की तरह होना चाहिए, सब को समान रूप से प्रकाश प्रदान करना चाहिए। नियमों की आड़ लेकर यदि किसी प्रकार का अन्याय किया जा रहा है, तो इसका विरोध किया ही जाना चाहिए। भारत भवन या तो सबके लिए उपलब्ध हो, या फिर सबके लिए प्रतिबंधित हो। अंग्रेज़ी में आयोजन हो रहा है इसका विरोध नहीं, क्योंकि जो प्रणाली इस आयोजन के पीछे है वह चाहती ही है कि भारत से हिन्दी जल्द से जल्द समाप्त हो। विरोध इस बात के लिए कि हिन्दी की संस्थाओं को दोयम दर्जे से देखा जाना बंद किया जाए। किसी संस्था को भारत भवन दिया गया उसका विरोध नहीं बल्कि बाक़ी संस्थाओं को क्यों प्रतिबंधित किया जा रहा है, इसका विरोध।
विरोध के कई तरीक़े हो सकते हैं, लेकिन होना चाहिए। मैं जानता हूं कि भारत भवन के विरोध में खड़े होने के अपने व्यक्तिगत नुकसान हैं, किन्तु साहित्य और भाषा को होने वाले व्यापक लाभ की तुलना में वह बहुत कम हैं। हम लेखकों के मन में सरकारी संस्थाओं के विरोध में खड़े होने को लेकर हमेशा भविष्य के प्रतिबंध का भय रहता है। लाल स्याही से नाम काट दिए जाने की शंका रहती है। मगर भोपाल एक अलग शहर है, शहर जो दुष्यंत जैसे भय और शंका से मुक्त शायर का शहर है, जो आग के जलने की अनिवार्यता की बात करने वाला शायर हुआ इस शहर में। दूसरी बात यह कि हिन्दी और उर्दू भाषा के गौरव का शहर भोपाल क्या इतना अंग्रेज़ीदां हो गया है कि उस शहर के नाम से आयोजित होने वाला कार्यक्रम ही अंग्रेज़ी में होगा। अंग्रेज़ी... जिसे पूरे भोपाल नहीं, बल्कि इस शहर के एक इलाक़े जिसे 'चार इमली' कहा जाता है वहां रहने वाले कुछ मुट्ठी भर अंग्रेज़दां पोषित करते हैं। (जनश्रुतियों के अनुसार बरसों पहले तब शहर से बहुत बाहर स्थित इस स्थान का नाम चोर इमली था, जहां लगी हुई चार इमलियों के नीचे बैठ कर चोर चोरी के माल का बंटवारा करते थे।) बाक़ी पूरा शहर आज भी हिन्दी और उर्दू की महक से महकता रहता है।
मैं जानता हूं कि बहुत सी बातें समाने आएंगी कि पंकज सुबीर इस मामले को बार-बार क्यों उछाल रहा है? अच्छा! इसको भारत भवन में नहीं बुलाया जाता है इसलिए। अच्छा! इसको कार्यक्रम करने के लिए भारत भवन नहीं दिया गया इसलिए? और भी बहुत से कारण इस विरोध के बताए जा सकते हैं। मैं इस प्रकार की बातों के लिए तैयार हूं।
भोपाल के साथियों, बस अनुरोध है कि विरोध किया जाए, उसका स्वरूप कुछ भी हो, लेकिन एक संदेश जाना चाहिए कि विरोध किया गया। यदि नहीं किया गया तो यह सब होता रहेगा आगे भी। हम विरोध के रूप में एक समानांतर 'भोपाल हिन्दी उत्सव' उन्हीं तारीख़ों 13-14-15 जनवरी 2023 में रच सकते हैं। मुझे पता है कि समय कम है, पर भोपाल के साहित्यिक साथियों तथा उनकी संस्थाओं की सामर्थ्य के आगे यह कम समय कुछ नहीं। यदि यह संभव न हो तो हम एक निंदा प्रस्ताव पारित कर सकते हैं भोपाल के साहित्य समाज की तरफ़ से। कुछ भी करें प्रतीक रूप में या ग़ैर प्रतीक रूप में करें, लेकिन विरोध होना चाहिए।
पता नहीं आपको यह मुद्दा उतना ज्वलंत लगे या न लगे जितना मुझे लग रहा है। हो सकता है आपको लगे मैं ही बहुत अतिरंजित होकर सोच रहा हूं, बात कर रहा हूं। ऐसा तो होता ही आया है, अधिकारी असल में तो सत्ता का ही पीछे का असली चेहरा होते हैं, और सत्ता के आयोजनों के लिए कोई प्रतिबंध अस्तित्व में ही कब रहता है। लेकिन इतनी लम्बी पोस्ट लिखने के पीछे बस मेरी यह सोच है कि मुझे लग रहा है कि यह अन्याय है जिसका विरोध होना चाहिए, ज़रूर होना चाहिए। सादर, पंकज सुबीर, सीहोर नोट : आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्यक्त विचारों से सरोकार नहीं है।