द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जापान लगभग बर्बाद हो गया था, तब जापानी सरकार ने देश के उत्थान के लिए श्रेष्ठतम विचारकों से चर्चा की, जिसमें इस बात पर विचार हुआ कि जापान के पुन: निर्माण के लिए किस चीज़ पर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए और उसके परिणाम आने में कितना समय लगेगा ? जब बहस समाप्त हुई तो निष्कर्ष यह था कि जापान को फिर से समृद्ध बनाने के लिए शिक्षा और शिक्षकों पर सर्वाधिक जोर देना चाहिए, इसके परिणाम पच्चीस वर्ष बाद दिखाई देंगे ।आगे की बात इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि जापान ने अगले पच्चीस वर्ष के भीतर फिर से खुद को आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित करने की दिशा में प्रभावी कदम उठा लिए। निसंदेह इसका श्रेय जापान की शिक्षा पद्धति को है, जिसमें शिक्षक की भूमिका को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है ।
हमारे देश में पहले भी शिक्षा पद्धतियां और शिक्षा नीतियां बनी हैं और प्रचलन में रही हैं ।प्रत्येक नीति अपने समय के हिसाब से ठीक थी। लेकिन किसी भी नीति के परिणाम सफलता के उस बिंदु तक नहीं पहुँच पाए जिनकी अपेक्षा की गई थी।यह देश का दुर्भाग्य है कि शिक्षा नीति का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन जिन शिक्षकों द्वारा किया जाता है, उनके विषय में आज तक की सभी शिक्षा नीतियां मौन रही हैं। सभी नीतियों में जोर इस बात पर रहता है कि शिक्षकों का प्रशिक्षण कैसे हो, और उनके कार्य-निष्पादन का मूल्यांकन कैसे किया जाए। शिक्षकों को जिम्मेदार ठहराने के नए-नए उपाय सोचे जाते हैं, लेकिन उनके कल्याण का कोई उपाय शिक्षा नीति का विचार विषय ही नहीं बन पाता।
कुछ समय पूर्व एक समाचार पत्र ने शीर्षक दिया था कि ‘आज शिक्षक दिवस नाग पंचमी की तरह मनाया जाएगा’।
इस शीर्षक पर खूब हंगामा हुआ था, लेकिन वास्तविकता बिलकुल इसी प्रकार है। हमारे देश में शिक्षक दिवस ठीक वैसे ही मनाया जाता है जैसे श्राद्ध और नाग पंचमी। बस उस एक शिक्षक दिवस के दिन शिक्षक की महिमा के बड़े-बड़े गुण गाए जाते हैं, उनका सम्मान समारोह आयोजित किया जाता है, उनकी प्रशंसा में लेख लिखे जाते हैं और अगले दिन से फिर पहले जैसी स्थिति निर्मित हो जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे नाग पंचमी पर सांप की पूजा होती है, उसे दूध पिलाने का प्रयत्न किया जाता है और बाद में यदि वह घर में दिखाई भी दे जाए तो लट्ठ ले कर उस पर पिल पड़ते हैं। श्राद्ध के दिन दिवंगत पूर्वजों का बड़े आदर से स्मरण होता है, लेकिन जीते-जी घरों में बुजुर्गों की कितनी इज्ज़त होती है—सभी जानते हैं ।देश भर में फैले हुए वृद्धाश्रम उसका प्रमाण भी दे रहे हैं ।
क्या ऐसा नहीं हो सकता, कि हम यह मानें कि शिक्षक को भी सम्मानजनक जीवन यापन का अधिकार है ? वह भी एक सामाजिक व्यक्ति है, उसका भी परिवार होता है, अपने बच्चों को ले कर उसकी भी आकांक्षाएं हैं ।महंगाई, बीमारी, सरकारी कर, सभी समस्याएं शिक्षक को भी भुगतना होती है। लेकिन जब शिक्षक के अधिकारों की बात आती है , तो पाखण्डपूर्व उपदेश दिया जाता है, कि शिक्षक कोई पैसे कमाने वाला पेशा नहीं है। यह एक पवित्र पेशा है। ऐसा कहने वाले अपनी दुकानों पर क्या शिक्षक के लिए अलग से कोई रियायती दर का काउंटर खोलते हैं? क्या देश में ऐसे बाज़ार बने हुए हैं, जहाँ शिक्षाओं को आधारभूत सुविधाएं सस्ती दरों पर उपलब्ध हो जायें? यदि नहीं, तो नैतिकता के नाम का यह पाखण्ड केवल शिक्षकों के लिए ही क्यों है?
पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था के एक बड़े भाग पर शिक्षा माफिया का कब्ज़ा है। अनेक निजी संस्थान व्यापारिक उद्देश्यों से चलाए जा रहे हैं जिनपर व्यापार के नियम भी लागू नहीं होते। ऐसे संस्थानों का एक ही उद्देश्य रह गया है कि अधिक से अधिक फीस एकत्र करना और शिक्षित बेरोजगारी की स्थिति का लाभ लेते हुए कम से कम वेतन पर शिक्षक को अस्थायी नौकरी देना ।इस मामले में सरकार ने भी बड़े-बड़े चमत्कार किए हैं। उन्हें शोषक प्रबंधकों की दया पर छोड़ दिया गया है ।इस देश में श्रमिकों के लिए तो न्यूनतम मजदूरी अधिनियम है, लेकिन शिक्षकों के लिए न्यूनतम वेतन का कोई नियम ही नहीं है ।बेचारा शिक्षक घिघियाते हुए हर वर्ष अपनी वेतन वृद्धि के लिए शोषक प्रबंधक से याचना करता है और उसके बाद सब कुछ सेठजी की कृपा पर निर्भर होता है। क्या सरकार पूरे देश में शिक्षकों के लिए न्यूनतम अनिवार्य वेतन का नियम भी नहीं बना सकती? वेतन या वेतन वृद्धि की मांग करने वाले शिक्षक को नौकरी से निकालने का भय दिखा कर चुप कर दिया जाता है। देश के सारे सरकारी विश्वविद्यालयों में एक तिहाई से अधिक पद खाली पड़े हैं। महाविद्यालयों में तो आधे से अधिक पद खाली हैं। फर्जी शिक्षकों को दर्शा कर निरीक्षण की औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं।
डॉ. मंगल मिश्र
शासन और विश्वविद्यालय भी सब जानते हुए शुतुरमुर्ग जैसा आँखें बंद कर लेता है। इसका कारण सबको मालूम है ।सरकार में बैठे हुए नीति निर्धारकों ने अतिथि, मानसेवी, शिक्षाकर्मी, गुरूजी, उप-गुरूजी, तदर्थ, अस्थायी, अंश कालिक जैसे अनेक शब्द गढ़ लिए हैं जो शिक्षकों के शोषण के नए-नए हथियार हैं। यही नहीं, इन नियुक्तियों में भी होने वाला भ्रष्टाचार 'ओपन सीक्रेट' है।
जब भी सरकार को चुनाव, जनगणना, टीकाकरण या अन्य किसी भी अभियान या कार्यक्रम की गतिविधि या संचालन के लिए कर्मचारियों की आवश्यकता होती है तो सबसे पहले गाज शिक्षकों पर ही गिरती है। शिक्षक सुबह जनगणना कार्य करते हैं, दोपहर में मध्यान्ह भोजन, शाम को अनौपचारिक शिक्षा केंद्र के साथ अन्य गतिविधियां संचालित करते हैं-बस पढाई छोड़ कर सारे काम किए जाते हैं।अशासकीय संस्थाओं में काम करने वाले शिक्षकों की हालत तो और खराब है। उनके शोषण का वर्णन करना तो पूरी तरह संभव ही नहीं है।
सरकारों और नीति निर्धारकों को यह विचार करना होगा कि शिक्षकों के दृष्टिकोण से सोचे बिना कोई शिक्षा नीति सफल नहीं हो सकती। हमें उच्च शिक्षा के साथ-साथ प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर कार्य कर रहे शिक्षकों पर भी सर्वाधिक ध्यान देने की ज़रूरत है। इस हेतु आईएएस, आईपीएस की तर्ज पर भारतीय शिक्षा सेवा (आईईएस) का गठन किया जाना चाहिए जिसकी प्रत्येक राज्य में अलग अलग शाखा हो जो राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर शिक्षकों का चयन करे और सभी शिक्षण संस्थाओं में इस शिक्षा सेवा के माध्यम से चयनित शिक्षकों को ही नियुक्त किया जाना संभव हो।
सभी अशासकीय शिक्षण संस्थाओं का शुल्क सीधे राष्ट्रीय शिक्षा सेवा कोष में जमा हो और शिक्षकों का सरकार द्वारा निर्धारित वेतन वहीं से सीधे शिक्षकों के खाते में नियमानुसार गणना कर जमा किया जाए और शेष राशि निजी शिक्षण संस्था को लौटाई जाए। पूरे देश में एक स्तर के शिक्षकों का वेतन एक जैसा होना चाहिए चाहे वह निजी संस्थान हो या सरकारी। शिक्षकों की नियुक्ति सेवा शर्तों, स्थानान्तरण, पदोन्नति, सेवानिवृत्ति सभी पर नियम बनाने और उसका क्रियान्वयन करने का अधिकार केवल राज्य शिक्षा सेवा को हो ।इस सेवा में केवल वरिष्ठ शिक्षक सम्मिलित होना चाहिए।
माननीय प्रधानमंत्री जी,आपने शिक्षा के लिए तो अच्छी नीति बनाई है, अब कृपा कर के शिक्षकों के लिए भी एक राष्ट्रीय नीति बना दीजिए ताकि शिक्षा नीति के सभी पावन संकल्प प्रभावशाली तरीके से क्रियान्वित हो सकें। निसंदेह शिक्षकों में भी अन्य पेशों के सामान अनुशासनहीन, कामचोर, अहंकारी, स्वेछाचारी एवं अयोग्य व्यक्ति पाए जाते हैं।
उनकी पहचान करना और उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करना भी आवश्यक है। इस सुझाई गई नई शिक्षक नीति में इस हेतु शिक्षक न्यायाधिकरण की व्यवस्था की जा सकती है। जब तक हम समग्र रूप से शिक्षा, शिक्षक, शिक्षार्थी पर विचार नहीं करेंगे तब तक कितनी ही एक पक्षीय नीतियां बन जाएं, शिक्षा की उन्नति के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकेगा। इस स्वतंत्रता दिवस पर सबसे ज्यादा आवश्यकता है शिक्षकों को भी शिक्षा माफिया की विवश गुलामी से मुक्ति दिलाने की।
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