बेचैनी के माहौल में ग़ज़ल और नज़्म से यूं मिला हौसला

रविवार, 9 फ़रवरी 2020 (12:41 IST)
देश में उथल-पुथल भरे माहौल के बीच 5 फरवरी 2020 को भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा) की इंदौर इकाई द्वारा आयोजित "संगीत संवाद" स्थानीय प्रेस क्लब सभागृह में संपन्न हुआ। प्रतिष्ठित लता मंगेशकर पुरस्कार प्राप्त करने मुंबई से इन्दौर आए मशहूर संगीतकार और मुंबई इप्टा के संरक्षक कुलदीप सिंह उनके बेटे और ख्यात ग़ज़ल गायक जसविंदर और इप्टा इंदौर के अनेक कलाकारों ने ख्याति प्राप्त शायरों की नज़्मों, गजलों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।

कार्यक्रम का प्रारंभ करते हुए प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने कहा कि देश में मनुष्यता विरोधी ताक़तों ने इतना उत्पात मचा रखा है कि चेतना संपन्न लोगों का अधिकांश समय उनके विरोध में ही बीत रहा है।  ऐसे में कुलदीप सिंह जी और जसविंदर के आने से हमें ये मौका मिला है कि हम विरोध की इन कार्रवाइयों के बीच सांस भर सकें और फिर से इंसानियत और अमन को बचने की अपनी लड़ाई में ताज़ा ऊर्जा के साथ जुट सकें। उन्होंने कुलदीप जी और जसविंदर जी का इप्टा के साथ दशकों पुराने जुड़ाव का परिचय दिया और कहा कि यह इप्टा परिवार की आत्मीयता ही है जो इंदौर आने के पहले ही कुलदीप जी ने मुझे फ़ोन करके कहा कि मैं अपने इप्टा के दोस्तों से मिलने के लिए एक दिन पहले ही आ जाता हूं। कुछ सुनेंगे और कुछ सुनाएंगे।

कार्यक्रम की शुरुआत हुई प्रसिद्ध कवि और अनुवादक उत्पल बैनर्जी के गायन से। उन्होंने ओमप्रकाश चौरसिया (भोपाल) के मधुकली वृन्द में तैयार हुईं कुछ अतुकांत कविताओं के गायन की प्रस्तुति दी। केदारनाथ सिंह की कविता ‘ओ मेरी भाषा, मैं लौटता हूं तुममें’ और मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ के एक अंश को गाया – ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धांतवादी मन, अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया!......  उत्पल ने नज़ीर अकबराबादी की प्रसिद्ध ग़ज़ल ‘आदमीनामा’ भी गाई।

ओ गंगा बहती हो क्‍यों 
इंदौर की इप्टा इकाई के कलाकारों महिमा, उजान और अनुराधा ने शर्मिष्ठा के निर्देशन में अनेक गीत-गजलें प्रस्तुत कीं। सबसे पहले असम में नागरिकता क़ानून से परेशां हो रहे लोगों को समर्पित करते हुए भूपेन हज़ारिका का गाया हुआ प्रसिद्ध गीत ‘ओ गंगा बहती हो क्यों’ गाया। विनीत ने जानकारी दी कि यह गीत महान अश्वेत आंदोलनकारी और कवि-गायक पॉल रोब्सन द्वारा मूलतः अंग्रेजी में अमेरिका की मिसिसिपी नदी के बहाने से वहां अमानवीय परिस्थितियों में रहने वाले अश्वेतों को झकझोरने के लिए लिखा था। भूपेन हज़ारिका ने उसे असमिया में अनुवाद कर मूल धुन को बरक़रार रखते हुए असमिया लोकसंगीत के हिस्सों को मिलाया।

शर्मिष्ठा ने भूपेन हज़ारिका का ही एक और मल्लाहों का करुण गीत ‘उस दिन की बात है रमैय्या’ प्रस्तुत किया जिसमे मछुआरा रमैय्या समंदर में जाने के बाद वापस नहीं आ सका था।  संचालन करते हुए विनीत ने कहा कि कितनी ही बार नदियां और समंदर घरों को लील गए, अब वे लोग भला कैसे अपने आपको नागरिक साबित कर सकेंगे?  शर्मिष्ठा एवं समूह ने रवीन्द्र संगीत के साथ ही शशिप्रकाश के एक जोशीले जनगीत ‘ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम चलो,  तुम उठो के उठ पड़ें असंख्य हाथ, तुम चलो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ’ की भी प्रस्तुति दी।  
 
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं
उज्जैन से आईं कुलदीप सिंह जी की शिष्या साधना ने भी दुष्यन्त कुमार की गजले सुनाई। ‘मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं, वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूं’, ‘चांदनी छत पर चल रही होगी, अब अकेले टहल रही होगी’ और ‘इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है’ जैसी दुष्यंत कुमार की मशहूर नज़्मों ने  माहौल में एक अलग ही रंगत घोल दी।

इसके बाद ग़ज़ल गायक जसविंदर ने मंच संभाला और दुष्यंत कुमार, ग़ालिब, फ़ैज़ और भी अनेक शायरों की अलग-अलग भावभूमि की अनेक रचनाएं सुनाईं।  ग़ालिब की ग़ज़ल ‘ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता, मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता’, ‘अमजद हैदराबादी की ग़ज़ल ‘यूं तो क्या-क्या नजर नहीं आता, कोई तुम-सा नजर नहीं आता, जो नजर आते हैं नहीं हैं अपने, जो है अपना नजर नहीं आता, झोलियां सबकी भर दी जाती है, देने वाला नजर नहीं आता’, फैज़ की नज़्म ‘वे लोग बहुत खुशकिस्मत थे, जो इश्क को काम समझते थे, या काम से आशिकी करते थे, हम जीते जी मसरूफ रहे, कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया’, और अंत में अपने गुरू और पिता कुलदीप सिंह के कहने पर राग मालकौंस में फ़ैज़ की ग़ज़ल ‘राज़े-उल्फ़त छुपा के देख लिया, दिल बहुत कुछ जला के देख लिया’ गाकर सभी को सम्मोहित कर लिया।

कुलदीप सिंह जी ने बताया कि महान संगीतकार नौशाद ने इसी ग़ज़ल को गाने पर जसविंदर को आशीर्वाद और पुरस्कार दिया था। उन्होंने नरेश कुमार शाद का शेर कहा ‘दुश्मनों ने तो दुश्मनी की है, दोस्तों ने भी क्या कमी की है, लोग लोगों का खून पीते हैं, हमने तो सिर्फ मैकशी की है।‘ और बशीर बद्र का शेर भी ‘दुश्मनों से प्यार होता जाएगा, दोस्तों को आजमाते जाइए।‘ जसविंदर ने अपने गायन का समापन कुलदीप सिंह द्वारा संगीतबद्घ गजल से किया, ‘तुमको देखा तो ये खयाल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया’।

हिन्दु संस्कृति के भी शैदाई थे नजीर 
कुलदीप सिंह जी ने अधिकांश नज्में नजीर अकबराबादी की सुनाई। उन्होंने बताया कि नजीर हमारी गंगा जमुनी तहजीब के बहुत बड़े शायर हैं। वे पांच वक्त के नमाज़ी होने के साथ ही नजीर हिन्दु संस्कृति के भी शैदाई थे।  उन्होंने होली, दीवाली, कृष्ण, गणेश आदि पर अनेक गीत लिखे। वे जनता के कवि थे।  कुलदीप सिंह जी ने कहा कि उन्होंने नज़ीर अकबराबादी की 25  से ज़्यादा ऐसी ग़ज़लों और नज़्मों को संगीतबद्ध किया है जो लोगों के बीच में कम जानी जाती हैं। सहज उत्साह के साथ उन्होंने नज़ीर की रचना ‘तंदुरुस्त’ गाकर सुनाई – ‘हुरमत उन्हीं के वास्ते जिनका चलन दुरुस्त, अल्लाह आदमी को रखे और तंदुरुस्त’।

‘खुशामद’ नज़्म में उन्होंने गाया - सच तो यह है कि खुशामद से खुदा राजी है, हमने हर दिल में खुशामद की मोहब्बत देखी है। उन्होंने एक और ग़ज़ल गाई – ‘कौड़ी न रख कफन को, जर, जोरू, जोड़ अपने तू पास गर रखेगा, या छीन लेगा हाकिम या चोर ले उड़ेगा’। रोटियां ग़ज़ल गाते हुए उन्होंने इंसानी भूख की हकीकत बयान की –‘जब आदमी के पेट में आती है रोटियां, फूली नहीं बदन में समाती है रोटियां’। कुलदीप सिंह जी ने अपने गायन के अंत में फैज़ की विख्यात ग़ज़ल ‘हम मेहनतकश जग वालों से, जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक खेत नहीं एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे’।

अगले दिन 6 फरवरी को जब कुलदीप जी को मध्यप्रदेश शासन के लता मंगेशकर राष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा गया तो भी उन्होंने फ़ैज़ का गीत ‘हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे’ गाया। इससे इप्टा के सदस्यों को गर्व और हौसला मिला।

प्रेस क्लब की ओर से अतिथियों का स्वागत प्रेस क्लब अध्यक्ष अरविन्द तिवारी और महासचिव नवनीत शुक्ला ने किया। इस अवसर पर इंदौर इप्टा और रूपांकन के अशोक दुबे ने अतिथियों को ‘सड़क पर लोकतंत्र’ शीर्षक से निर्मित कैलेंडर भेंट किए। कार्यक्रम संयोजन किया प्रमोद बागड़ी ने और आभार अरविंद पोरवाल ने माना।

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