दिल-दिमाग को टटोल याद करने की कोशिश करती हूं कि कबीर से मेरा परिचय कितना पुराना है। कक्षा 3 में पढ़े 'नीति के दोहे' जितना या कक्षा छ: में दोहे याद ना कर पाने की एवज तड़-तड़ पड़ती छड़ी जितना। कक्षा नौ की व्याख्या के साढ़े तीन नंबर या बीए फाईनल के 17 नंबरों की चिंता। या फिर घोर साहित्यिकता के वे नाजुक पल जब कबीर पढ़ते-पढ़ते आंखें अनायास ही जल-थल हो जाया करती थी।
अंधों की बस्ती में रोशनी बेचते कबीर वाकई अपने आने वाले समय की अमिट वाणी थे। कबीर का जन्म इतिहास के उन पलों की घटना है जब सत्य चूक गया था और लोगों को असत्य पर चलना आसान मालूम पड़ता था। अस्तित्व, अनास्तित्व से घिरा था। मृत प्राय मानव जाति एक नए अवतार की बाट जोह रही थी। ऐसे में कबीर की वाणी ने प्रस्फुटित होकर सदियों की पीड़ा को स्वर दे दिए। अपनी कथनी और करनी से मृत प्राय मानव जाति के लिए कबीर ने संजीवनी का कार्य किया।
इतिहास गवाह है, आदमी को ठोंक-पीट कर आदमी बनाने की घटना कबीर के काल में, कबीर के ही हाथों हुई। शायद तभी कबीर कवि मात्र ना होकर युगपुरुष कहलाए। 'मसि-कागद' छुए बगैर ही वह सब कह गए जो कृष्ण ने कहा, नानक ने कहा, जीसस ने कहा और मोहम्मद ने कहा। मजे की बात, अपने साक्ष्यों के प्रसार हेतु कबीर सारी उम्र किसी शास्त्र या पुराण के मोहताज नहीं रहे। न तो किसी शास्त्र विशेष पर उनका भरोसा रहा और ना ही जीवन भर स्वयं को किसी शास्त्र में बांधा।
सच है, कबीर ने समाज की दुखती रग को पहचान लिया था। वे जान गए थे कि हमारे सारे उत्तर पुराने हो गए हैं। नई समस्याएं नए समाधान चाहती हैं। नए प्रश्न, नए उत्तर चाहते हैं। नए उत्तर, पुरानेपन से छुटकारा पाकर ही मिलेंगे। तभी तो कबीर के दुस्साहस ने उनसे लिखवाया था -
'तू जो बामण-बामणी जाया,
और राह ह्वै क्यों नहीं आया'
अथवा
तू जो तुरक-तुरकनी जाया
भीतर खतना क्यों ना कराया।
यह कबीर की ही नवीन सोच का परिणाम था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र, एवं वैश्यों में टूटा समाज फिर से एकजुट होकर बाह्य शक्तियों का सामना करने में सक्षम हो पाया।
देश स्वतंत्र हुआ। जिंदगी पटरी पर आई और अब कबीर समाज सुधारकों की अपेक्षा साहित्यकारों की विषयवस्तु हो गए। कागज-कलम उठा यमक-अनुप्रास ढूंढते साहित्य के विद्यार्थी कबीर के संत कम और साहित्यकार अधिक होने पर जोर देते रहे।
कर का मन का डार के
मन का मनका फेर
यह सहज संदेश भारी-भरकम साहित्यिक विश्लेषण के नीचे दब कर कराह उठा। कबीर कहां थे, जो कह सके 'मन की आंखों से व्याख्या करो'। हम रोटी-कपड़ा-मकान की जरूरतों से उबरे,(देश अब प्रगतिशील जो हो गया था।)। अब हमारे पास मनोरंजन के वृहद साधन और विशद् पल मौजूद थे। ऐसे में कबीर की फक्कड़ता गायकों और कवियों को रम गई। कहीं से गूंज उठा :
भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे
मैं तो पनिया भरन से छूटी रे
तो कहीं गूंजा :
अव्वल अल्ला नूर उपायै़ कुदरत के सब बंदे
एक नूर से सब जग उपजा, कौन भले कौं मंदे...!
अब कबीर सभ्य समाज की 'कॉफी विद कबीर' वाली चर्चा हो गए। आखिर पैसा और नाम दोनों ही उगाया जा सकता था कबीर से। कबीर पर फिल्में बनी। उनका दृष्टिकोण वृत्तचित्रों में ढला। और हमने दुनिया के समक्ष मिसाल प्रस्तुत की-' हम दुनिया की सबसे लचीली सभ्यता के अनुयायी हैं'। पर अफसोस हमने आज भी जात-बिरादरी और कुल के अहं को नहीं त्यागा- 'एल्लो, कबीर पढ़ते हैं इसका यह मतलब तो नहीं है... हां नी तो...! अंतस में आज भी यह वाक्य मां द्वारा पिलाई पहली घुट्टी सा क्यों अटका पड़ा है?
सोचने बैठती हूं तो लगता है कबीर जो अंधी आस्थाओं के घोर विरोधी थे। कबीर जो मंदिर-मस्जिद, काबा-काशी, टोपी-तिलक, मूर्ति पूजा, मजार-परस्ती आदि बाह्य आडंबरों का विरोध किया करते थे, इनका 'जन्म' , इतिहास के भाल पर अमिट घटना है या 'मृत्यु'? समाज, जाति और धर्म के ठेकेदार कितना प्रसन्न हुए होंगे कबीर की मृत्यु पर? 'ॐ पवित्राय नम:,पवित्राय नम:' का जप करते पंडित जी और 'लाहौल-विला-कूवत, कमबख्त (कबीर) ने बड़ा खराबा किया था' कह कर लानत भेजते मौलवी साहब तो मेरे तसव्वुर में अपना पूरापन समेटे बड़ी शान से रक्स कर रहे हैं।
श्रुतियां, स्मृतियां और वृत्तियां सब चूक गईं हैं। धर्म के ठेकेदार प्रसन्न हो रहे हैं। सफेदपोश खुश-खुश डोल रहे हैं। समाज के बूढ़े लोगों के उत्साह का कोई ठिकाना नहीं है। कर्मकांडों के वृक्षों में उमंगों की कोंपलें फूटने लगी हैं। मरे हुए उत्तरों को पुनर्जीवित कर, उच्च स्वर में उनका पुनर्पाठ किया जाने लगा है। मुल्ला-पुरोहितों की दुकान फिर सियासतदारों के साथ सजने लगी हैं। समाज फिर से कबीर पूर्व का समाज बनने लगा है।
सवाल है, हम इन मरे हुए उत्तरों से कब छुटकारा पाएंगे? कब मुक्त हो सकेंगे इन बेजान जवाबों से? क्या हम इंसान होकर संतुष्ट होना सीखेंगे? क्या वक्त के हाशिए पर मन की इस बेचैनी के निवारण हेतु फिर कोई पयम्बर उठेगा, जो कबीर की तरह साहस करेगा यह कहने का कि-