महासमुद्रों को प्लास्टिक से हो रहा है नुकसान

राजकुमार कुम्भज
हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका प्लास्टिक जाने-अनजाने में समुद्र और समुद्री जीवों को बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है। पीने के पानी की बोतलें, रैपर, प्लास्टिक थैले, नेट और औद्योगिक कचरा ही नहीं, बल्कि इन प्लास्टिक अवययों के छोटे घटक (माइक्रो प्लास्टिक्स) भी नए-नए किंतु अदृश्य खतरों का कारण बनते जा रहे हैं।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओश्यिनोग्राफी (एनआईओ) के 5वें अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान वैज्ञानिकों ने कहा है कि प्लास्टिक प्रदूषण बहुत बड़ी समस्या है किंतु माइक्रो प्लास्टिक की समस्या तो उससे भी कहीं ज्यादा भयानक समस्या बनती जा रही है। माइक्रो प्लास्टिक से विश्वभर के महासमुद्रों में पैदा हो रहा प्रदूषण आने वाले समय में बहुत विकट समस्या साबित होगा और यह समस्या इतनी विकट-विकराल होगी कि जो सदियों तक मानव जीवन को प्रभावित करती रहेगी।
 
वैज्ञानिक अध्ययन में कहा गया है कि समुद्री जीव प्लास्टिक की बोतलें और थैलियां गलती से निगल लेते हैं जिससे कि इन जीवों की आहार नली अवरुद्ध हो जाती है। इसी तरह बड़े प्लास्टिक पदार्थों के छोटे घटक भी परेशानी का सबब बनते है, क्योंकि ये छोटे घटक परिवर्तित होकर अंतत: मनुष्यों के भोजन का हिस्सा बन जाते हैं। कहा गया है कि इस समस्या का समाधान अकेले सरकार नहीं निकाल सकती है।
 
यदि समुद्र में प्लास्टिक के कचरे की समस्या धीरे-धीरे भी दूर करना है तो इसके लिए सरकार के साथ-साथ लोगों की भी भागीदारी जरूरी हो जाती है। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (एनआईओ) के वैज्ञानिकों ने माइक्रो प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण से जुड़ा जो अनुसंधान शुरू किया है, वह अनुसंधान अपने देश में सर्वथा पहली बार ही किया जा रहा है।
 
प्लास्टिक कचरे के समाधान हेतु सुझाया गया है कि समुद्री प्रदूषण के खिलाफ कानून लागू किया जाना चाहिए। मौजूदा प्लास्टिक उत्पादों के विकल्प खोजे जाने चाहिए और समुद्र में मौजूद कचरे की पर्याप्त गंभीरता से साफ-सफाई भी की जाना चाहिए। समुद्री प्रदूषण से जहां समुद्री जीवों का प्रभावित होना तय है, वहीं प्रदूषण प्रभावित समुद्री जीवों के भक्षण से मानव जीवन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है, लिहाजा छोटे घटकों अर्थात माइक्रो प्लास्टिक्स के खतरों से निपटना बेहद जरूरी हो जाता है।
 
अन्यथा नहीं है कि विश्व की आबादी प्रतिवर्ष लगभग अपने वजन के बराबर प्लास्टिक उत्पन्न करती है। प्रतिष्ठित अमेरिकी जर्नल 'साइंस' में प्रकाशित वर्ष 2015 के एक वैश्विक अध्ययन के मुताबिक दुनिया के 192 समुद्र तटीय देशों में तकरीबन 2 टन प्लास्टिक कचरा महासमुद्रों में प्रविष्ट हो गया है। 
 
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीबीसीपी) के आकलन अनुसार प्रतिवर्ष प्रत्येक भारतीय तकरीबन 8 किलोग्राम प्लास्टिक का उपयोग करता है। इसका निष्कर्ष यही हुआ कि भारत में प्रतिवर्ष तकरीबन 100 लाख टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है। देश में प्रतिदिन 15,000 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है जिसमें से सिर्फ 9,000 टन कचरा ही एकत्र और प्रोसेस किया जाता है, बाकी 6,000 टन प्लास्टिक कचरा नदी-नालों, गलियों-सड़कों और बाग-बगीचों सहित समुद्र तटीय क्षेत्रों में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरा पड़ा रह जाता है, किंतु अब दोबारा इस्तेमाल योग्य नहीं बनाए जा सकने वाले थर्मोसेट प्लास्टिक के लिए गाइड लाइन बनाने का काम केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को दे दिया गया है, ये राहत की बात है। 
 
प्लास्टिक की थैलियां हमारे रोजमर्रा के जीवन की जरूरत और सुविधा दोनों ही बनती जा रही हैं। प्लास्टिक की थैलियां विक्रेताओं सहित उपभोक्ताओं तक में अति-लोकप्रिय हैं, क्योंकि ये थैलियां आकर्षक, सस्ती, मजबूत और हल्की होती हैं। इन्हें तह करके आसानी से जेब में रखा जा सकता है, लेकिन ये ही प्लास्टिक थैलियां अब जल, जमीन, जंगल के लिए हद दर्जे तक हानिकारक साबित हो रही हैं। जल में रहने वाले समुद्री जीवों, पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों और मवेशियों सहित वन्य जीवन को भी खतरनाक ढंग से खत्म करने के लिए ये प्रमुखत: जिम्मेदार बनती जा रही हैं। 
 
समूचे विश्व में प्रतिवर्ष तकरीबन 500 खरब प्लास्टिक थैलियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस तरह हम पाते हैं कि इस समय दुनिया में 1 मिनट में 1 अरब से भी ज्यादा ऐसी ही थैलियां इस्तेमाल की जा रही हैं जिनसे हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है।
 
याद रखा जा सकता है कि प्लास्टिक थैलियों के विघटित होने में 1,000 बरस तक का कालखंड समर्पित हो जाता है, वहीं एक खतरनाक खबर यह भी है कि समूचे विश्व में सबसे ज्यादा प्लास्टिक का इस्तेमाल भारत करता है। 
 
प्लास्टिक थैलियां खाने से प्रतिवर्ष तकरीबन 1 लाख से ज्यादा पशु-पक्षी मर जाते हैं। प्लास्टिक थैलों का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव भी यही है कि ये नॉन बायोडिग्रेडेबल हैं। यही नहीं, पॉलिथीन की ये थैलियां प्राकृतिक पर्यावरण को प्रदूषित करते हुए उसे भद्दा भी बना रही हैं। बाग-बगीचों, नदियों-तालाबों, सड़कों और समुद्री किनारों पर यहां-वहां बिखरी पड़ीं इन थैलियों से पर्यटन स्थल क्या गंदगी के अड्डे नहीं बन गए हैं? 
 
हम अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति जैसे उद्योग-धंधों, कल-कारखानों और परिवहन आदि के लिए अत्यंत ही तीव्र गति से गैर-नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं, जो कि पेट्रोलियम पदार्थों पर आधारित हैं। जिस भी किसी दिन अगर पेट्रोलियम की आपूर्ति समाप्त हो गई तो फिर समझ लो कि उसी दिन ये दुनिया भी आधी ही रह जाएगी। मनुष्यों सहित समुद्री जीवों और वन्य जीवों को भी बचाना बेहद जरूरी है। कोई कारण नहीं है कि ऐसा किया जाना असंभव नहीं है। 
 
प्लास्टिक के जन्मकाल से ही हम सुनते आ रहे हैं कि यह एक ऐसा पदार्थ है जिसे पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता है। इसे किसी एक आकार-प्रकार से किसी दूसरे आकार-प्रकार में बदल तो सकते हैं, लेकिन संपूर्णत: समाप्त नहीं कर सकते हैं। इसीलिए इसे दुनियाभर में खतरे की घंटी माना जाता है।
 
किंतु स्टैंडफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अभी-अभी झींगुर प्रजाति का ही एक छोटा-सा ऐसा कीड़ा ढूंढ निकाला है, जो प्लास्टिक खाता है। अगर शोधकर्ता प्लास्टिक खाने वाले इस कीड़े की प्रजाति का विस्तार करने में सफल हो गए तो संभव है कि फिर प्लास्टिक से मुक्ति भी मिल जाएगी।
 
अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ जॉर्जिया द्वारा वर्ष 2015 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक प्लास्टिक कचरा कुप्रबंधन और इस कचरे से महासमुद्रों को प्रदूषित कर देने वाले देशों की सूची में भारत को 12वें स्थान पर रखा गया है। सबसे पहले क्रम पर चीन और उसके बाद इंडोनेशिया, फिलीपींस, वियतनाम और श्रीलंका का नाम आता है।
 
इसी अध्ययन में आगे कहा गया है कि समुद्र तटीय इलाकों में 87 फीसदी तक प्लास्टिक कचरा कुप्रबंधित होता है, जो कि इंसानों के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। इसके साथ ही यह भी बताया गया है कि तकरीबन 80 फीसदी समुद्री कचरा यहां भूमि से ही आता है, किंतु एक दिलचस्प सूचना यह हो सकती है कि प्लास्टिक के पुनर्चक्रण (री-साइकलिंग) क्षेत्र में 47 फीसदी के साथ भारत पहले स्थान पर है। इसका एक अन्य आशय यही है कि भारत द्वारा इस्तेमाल किया गया कुल प्लास्टिक का लगभग आधा हिस्सा कचरे की ही शक्ल में शेष रह जाता है, जो कि निहायत चिंताजनक स्थिति का सबूत देता है।
 
गौरतलब है कि हाल ही में हमारे केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल 2016 अधिसूचित कर दिए हैं। केंद्र सरकार का कहना है कि ये नए नियम अगले 6 महीनों के भीतर प्रभावशील हो जाएंगे। नए नियम इतने सख्त हैं कि थैलियों की न्यूनतम मोटाई 40 से बढ़ाकर 50 माइक्रॉन कर दी गई है। इससे कम माइक्रॉन की थैलियां प्रतिबंधित कर दी गई हैं। इतना ही नहीं, पहले प्लास्टिक की इन थैलियों संबंधित प्रावधान सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही प्रभावशील किए जाते थे और ग्रामीण क्षेत्रों को इन नियमों से मुक्त रखा गया था किंतु नए नियम अब ग्रामीण क्षेत्रों के लिए भी विस्तारित कर दिए गए हैं।
 
प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल 2016 लागू कर दिए जाने से पॉलिथीन की थैलियों, कैरी बैग आदि की कीमतें 20 फीसदी तक बढ़ जाएंगी। नए नियमों के अंतर्गत दुकानदारों, वेंडरों आदि को इनके इस्तेमाल से पूर्व स्थानीय निकायों में खुद को पंजीकृत कराना होगा जिसके लिए सालाना 48,000 अथवा मासिक 4,000 रुपए फीस चुकाना होगी। इसके बदले में दुकानकार अपने ग्राहकों से इसकी कीमत वसूल सकेंगे, साथ ही उन्हें अपनी दुकानों पर इस आशय का बोर्ड भी टांगना होगा कि उनके यहां उचित मूल्य पर प्रमाणित मात्रा के माइक्रॉन वाली प्लास्टिक थैलियां मिलती हैं।
 
इसके अतिरिक्त निर्माता कंपनियों की यह जिम्मेदारी भी होगी कि उक्त कचरा एकत्र करते हुए अपना खुद का कचरा प्रबंधन तंत्र भी उसे स्थापित करना होगा। बहुत संभव है कि इन प्रावधानों का सख्ती से पालन करने पर सकारात्मक नतीजे निकलेंगे और महासमुद्रों को किसी हद तक प्लास्टिक कचरे से मुक्ति भी तभी मिलेगी।

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