चाँदनी की रश्मियों से चित्रित छायाएँ

Ravindra Vyas
WD
प्रेम कई तरह से आपको छूता है, स्पर्श करता है. आपकी साँसों को महका देता है। और यह सब इतने महीन और नायाब तरीकों से होता है कि कई बार आप उसे समझ नहीं पाते। यह एक तरह का जादू है। यह कभी भी, कहीं भी फूट पड़ता है, खिल उठता है, महक उठता है। इसी जादुई अहसास से जब प्रेमी अपनी आँखों से जो कुछ भी देखता है उसे वह प्रेममय जान पड़ता है।

उसे लगता है कायनात का हर जर्रा प्रेममय है। हर तरफ प्रेम के दृश्य हैं, हर तरफ प्रेम के ही बिम्ब हैं और हर तरफ प्रेम के ही फूल खिले हैं। रानी जयचंद्रन केरल की युवा कवयित्री हैं। उनकी कविताओं का नया संग्रह हाल ही में आया है जिसमें कुछ कविताओं का अनुवाद एक ब्लॉगर और कवि सिद्धेश्वर ने किया है। रानी की एक कविता है जादुई प्रेम। इसमें केरल की प्राकृतिक सुंदरता तो है ही लेकिन उससे भी सुंदर है रानी की वह प्रेमिल आँख जिसके जरिए वह प्रकृति का मार्मिक और खूबसूरत मानवीयकरण करती हैं।
कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है-

अस्ताचल के आलिंगन में आबद्ध
डूबता सूरज
समुद्र से कर रहा है प्यार
इस सौन्दर्य के वशीकरण में बँधकर
देर तक खड़ी रह जाती हूँ मैं
और करती हूँ इस अद्भुत मिलन का साक्षात्कार

यह एक आम दृश्य है। हम सब ने इसे कभी न कभी, कहीं न कहीं देखा है लेकिन क्या हमने इसका साक्षात्कार किया है। इसे महसूस किया है। एक कवयित्री एक आम दृश्य को अपनी विलक्षण प्रेमिल निगाह से उसे एक अद्वितीयता दे रही है। आगे की पंक्तियों पर गौर फरमाएँ-

प्यार की प्रतिज्ञाओं और उम्मीदों से भरी
भीनी हवा के जादुई स्पर्श से
अभिभूत और आनंदित मैं
व्यतीत करती हूँ अपना ज्यादातर वक्त
यहीं इसी जग
और मुक्त हो देखती हूँ
जल में काँपते चाँद को बारम्बार।


हम हमारा ज्यादातर समय कहाँ व्यतीत करते हैं। शायद अधिकांश समय हम नकली और भड़कीले चीजों को देखने में नष्ट कर देते हैं। भड़कीले और शोरभरे दृश्यों को देखने में नष्ट कर देते हैं। लेकिन एक कवयित्री हमें दृश्य दिखा रही है जिसमें सुंदरता है, बिम्ब है और इस दृश्य के जरिये उदात्त मानवीय भावनाएँ अभिव्यक्त हो रही हैं। यहाँ भीनी हवा का अहसास ही नहीं है उसका जादुई स्पर्श है, और मुक्त होकर जल में काँपते चाँद को देखने का विरल अनुभव भी। यह हमारे अनुभव को कुछ ज्यादा मानवीय बनाता है, ज्यादा सुंदर बनाता है।

इस अद्भुत मिलन के दृश्य से
भीगकर भारी हुई पृथ्वी
खड़ी रह गई है तृप्त -विभोर।
और चाँदनी की रश्मियों से चित्रित
बनी - अधबनी छायाएँ
फैलती ही जाती हैं वसुन्धरा के चित्रपट पर
यहाँ-वहाँ हर ओर।

और कविता का असल मर्म आखिर में खुलता है कि यह अद्भुत मिलन का दृश्य है जिससे भीगकर हमारी यह पृथ्वी भारी हो गई है और उसकी छायाएँ वसुंधरा पर फैलती जा रही हैं। यह प्रेम का ही विस्तार है। प्रेम ही हमें उदात्त बनाता है, विशाल बनाता है और आंतरिक खुशी के साथ आंतरिक वैभव भी प्रदान करता है। जिस तरह सूर्य, प्रृथ्वी, हवा, चाँद और मिलन से यह कविता वैभवपूर्ण और विशाल बनती है यह सिर्फ प्रेम की वजह से ही संभव है।

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