पांडेय बेचन शर्मा उग्र विचित्र सा नाम विचित्र सा ही व्यक्तित्व। नाम के पीछे अपनी ही तरह की अनूठी कहानी तो व्यक्तित्व के पीछे और भी अधिक अद्भुत किस्से। स्वभाव से अक्खड़ और तबियत से फक्कड़ ये क्रांतिकारी साहित्यकार स्वयं में इतने रंगों और रूपों को समेटे हुए थे कि किसी भी अयन में खड़े होकर निहारो, समूचा इंद्रधनुष नजर आता है।
उपन्यासकार के रूप में जब चॉकलेट का सृजन किया तो साहित्य जगत में हड़कंप मच गया, संपादक के रूप में विक्रम और स्वदेश के सहयोगी रहे तो ऐसा लिखा कि कारावास जाना पड़ा विक्रम के संचालक संपादक पं. सूर्यनारायण व्यास और द्विवेदीजी (स्वदेश) को। कहानियाँ रचीं तो ऐसी विस्फोटक कि ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें हिला दीं।
कविताएँ लिखीं तो उनमें प्रतीकवाद और प्रगतिवाद तब झलक रहे थे जब हिंदी में इन वादों की हवा भी नहीं बही थी। कुल मिलाकर यह कि जिस विधा को स्पर्श किया उसी में सर्वथा मौलिक रचकर विशिष्ट पहचान स्थापित की।
पांडेय बेचन शर्मा उग्र विचित्र सा नाम विचित्र सा ही व्यक्तित्व। नाम के पीछे अपनी ही तरह की अनूठी कहानी तो व्यक्तित्व के पीछे और भी अधिक अद्भुत किस्से। स्वभाव से अक्खड़ और तबियत से फक्कड़....
काशी, कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, जयपुर, इंदौर और उज्जैन भटकते विद्रोही कथाकार उग्र कभी एक जगह टिककर काम नहीं कर सके। हर किसी से झगड़ पड़ना उनका स्वभाव हो गया था। उज्जैन उनकी प्रिय कर्मस्थली रही, जहाँ उन्होंने पं. सूर्यनारायण व्यास के साथ विक्रम का कुशलतापूर्वक संपादन किया।
पं. व्यासजी ने आज में उग्रजी पर लिखे आलेख में उद्धृत किया है- विक्रम पत्रिका का आरंभ ही उग्रजी के अनुरोध पर किया गया था, किंतु चार अंक के बाद ही प्रकाशक से टकराहट हो गई और एकाध असंयत टिप्पणी के कारण शासन से भी तुरंत काम छोड़ दिया। उसके बाद विवश होकर व्यासजी को संपादन का कार्यभार उठाना पड़ा।
तब उग्रजी ने व्यासजी को पत्र लिखा- छ: महीने संपादन कर लिया तो मैं शिष्य बन जाऊँगा। इस पत्र ने व्यासजी को और अधिक ऊर्जस्वी, सजग और प्रेरित किया।
फलस्वरूप विक्रम लगातार आठ वर्ष तक चलता रहा किंतु सब जानते हैं कि न व्यासजी गुरु बने और न ही उग्रजी शिष्य। उग्रजी ने उज्जैन में व्यासजी के निवास स्थान भारती भवन में रहते हुए व्यासजी के विरुद्ध लिखा लेकिन व्यासजी की उदारता और उग्रजी का उत्साह कि उनके मध्य संबंधों की स्निग्ध डोर सदैव यथावत रही।
पं. व्यासजी ने लिखा है : ऐसी बातों के बाद भी हमारे उनके बीच स्नेह सूत्र निरंतर स्थिर बना रहा। मैं उनके स्वभाव, व्यवहार और हृदय को समझ सका था, इसलिए उनके साथ स्थिर संबंध बनाए रखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई। उज्जैन में भारती भवन में रहते उग्रजी ने कभी अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया।
भाँग के सिवाय किसी नशे या अखाद्य का सेवन नहीं किया। रोजाना सुबह साढ़े चार बजे जागकर महाकालेश्वर मंदिर के कुंड में स्नान करते और फिर मंदिर की सफाई में लग जाते। सूर्योदय के समय लौटकर आधा पाव भाँग पीसकर पानी के साथ उदरस्थ कर लेते फिर वे लिखने बैठ जाते।
पं. व्यासजी ने लिखा है : मेरे घर रहते हुए दो वर्ष में शराब उन्होंने नहीं छुई, किंतु एक रोज एक पुराने रईस मित्र के यहाँ पीने को विवश होना पड़ा।
पं. व्यासजी ने लिखा है : ऐसी बातों के बाद भी हमारे उनके बीच स्नेह सूत्र निरंतर स्थिर बना रहा। मैं उनके स्वभाव, व्यवहार और हृदय को समझ सका था, इसलिए उनके साथ स्थिर संबंध बनाए रखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई...
मेरे साथ ही वे भोजन करते थे। उस रात देरी हो गई। मैं दफ्तर में यह कह आया था कि उग्रजी आ जाएँ तो घर पर भोजन के लिए भिजवा देना। मेरे जाने के बाद वे आए।
जब मेरा संदेश मिला तो उन्होंने एक चिट पर लिखकर यह भिजवाया कि मुझे आज मित्र ने थोड़ी पिलवा दी है इसलिए ऐसी हालत में मैं माँ के सामने नहीं आऊँगा। यह थी उनकी नशे में भी मर्यादाशीलता। एक बार उग्रजी ने दिल्ली से व्यासजी को पत्र लिखा : यहाँ मैंने सभी से दुश्मनी कर ली है। लेखक, कवि, पत्रकार सभी नाराज हैं। व्यासजी ने जवाब लिखा : अब सठिया गए हो, यह प्रवृत्ति पलट दीजिए।
उग्रजी का उत्तर था : मेरा नाम निरर्थक बन जाएगा। उग्रता ही मेरी साधना है। यही मैंने सिद्धि प्राप्त की है। अब जिंदगी के चंद दिनों के लिए उसे क्यों छोड़ूँ?
भारती भवन में रहते हुए उग्रजी ने एक कुत्ता भी पाला चिडक्यांग, उग्र की क्रांतिकारी कहानियों की भूमिका में संपादक राजशेखर व्यास ने यह रोचक जानकारी दी है कि चिडक्यांग की आवभगत भी स्वयं उग्रजी करते। रोज रबड़ी-जलेबी खिलाते और जमकर पीटते भी। उसके मुँह से राम-राम कहलाने को। जब तक वह आम-आम न कह दे उसकी शामत रहती।
उग्रजी के लिए पं. सूर्यनारायणजी ने लिखा है : वे साहित्य के पारखी थे। संगीत के मर्मज्ञ थे, सितार उन्हें प्रिय था। वे धार्मिक और भक्त थे। शिव और राम उनके आराध्य थे। उन्होंने पैसा कम नहीं कमाया। पर जो कमाया, उसे उड़ाने में देरी न की। रेसकोर्स पर पैसा लुटाया। कभी कौड़ी कमाई नहीं की। मैं उग्रजी को 1920-21 से जानता था जब वे आज में अष्टावक्र के नाम से छोटे-छोटे व्यंग्य लिखा करते थे। इस व्यंग्य के लिए आज के लोगों में खींचतान चला करती थी।
उग्रजी के लिए पं. सूर्यनारायणजी ने लिखा है : वे साहित्य के पारखी थे। संगीत के मर्मज्ञ थे, सितार उन्हें प्रिय था। वे धार्मिक और भक्त थे। शिव और राम उनके आराध्य थे। उन्होंने पैसा कम नहीं कमाया। पर जो कमाया, उसे उड़ाने में देरी न की....
कलकत्ते से मतवाला निकला उसकी मस्ती पर पाठक फिदा हो गए थे। उग्रजी की कलम वहाँ बहुत चमकी। उसी पत्र में क्रमश: चंद हसीनों के खुतुत निकलने लगा। उसे पढ़कर लोगों ने उग्र की कलाम का लोहा मान लिया। कलकत्ते में रहते हुए ही उनकी एक पुस्तक को लेकर विशाल भारत द्वारा घासलेटी साहित्य का आंदोलन उठा।
कलकत्ता कांग्रेस के अधिवेशन के साथ राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन का अधिवेशन भी हो रहा था, मैंने देखा स्वयं उग्रजी घासलेटी साहित्य के विरोध में प्रकाशित मतवाला के अंक सदस्यों को बाँट रहे थे। अपने अंतिम समय में वे उज्जैन में बसना चाहते थे।
व्यासजी को उन्होंने लिखा था : कोई छोटा-सा प्लाट मिल जाए तो अपनी कुटी बनाकर महाकाल मंदिर की झाड़ू लगाते रहने की कामना है। दिल्ली में अब भाड़ झोंकने को जी नहीं करता। उग्रजी का विचार था कि उज्जैन के अलावा मकान बने भी तो जन्मस्थल चुनार में गंगातट पर काले पत्थरों का बने और उसका नाम श्मशान रहे। ऐसी विचित्र कल्पना वाले विलक्षण क्रांतिकारी लेखक उग्र का 23 मार्च 1967 को कृष्णानगर, दिल्ली में देहावसान हो गया। निराला के शब्द थे उग्र की कुख्याति भी साहित्य में एक दिन ख्याति बनकर चमकेगी।