हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को जनसामान्य तक पहुँचाने वाले फिर चाहे वह मंडी का हम्माल हो या मिलियनेयर स्टार अमिताभ बच्चन। क्लासेस से मासेस तक सभी के दिलों पर राज करने वाले खयाल गायकी के बादशाह और संगीत का मानबिंदु हैं भारत रत्न पं. भीमसेन जोशी।
शास्त्रीय परंपरा से रिश्ता कायम रखते, अपने संगीत में नवीनता को स्वीकारते हुए आपने खयाल गायकी को एक नई ऊँचाई पर पहुँचा दिया। उस दौर में जब नाट्य संगीत और भजनों को अधिक सम्मान हासिल न था। ठुमरी और टप्पे पर तो उपशास्त्रीय का ठप्पा लगा था, जो आज भी है, फिर भी बेहद सहजता और उदारता से आपने उन्हें अपनाया और अपने अंदाज में पेश किया।
राजे-रजवाड़ों, नवाबों और दीवानखानों की चौखट को लाँघते खयाल गायकी को आमजनों तक पहुँचाने में आपने नवीनता के साथ परपंरा को भी सहेजा। जो किराना घराने के चौखट में न उलझते हमेशा कुछ नया ही देती रही। खयाल, ठुमरी, नाट्य संगीत और अभंगवाणी तमाम गायन प्रकारों को अपने गायन में बेहद खुले विशुद्ध रूप में साकार किया। रस, रंग, गंध और स्पर्श ये तमाम एहसास और सवेदनाएँ आपके खयाल में पेश होते ठुमरी में खिले हैं और इस एहसास से भी अधिक है उनके श्रोताओं और रसिकों को होने वाला आनंद।
किराना यानी सही तलफ्फुज कैराना, कर्ण का गाँव... पानीपत-सोनीपत के नजदीक, जहाँ के रहवासी थे उस्ताद अब्दुल करीम खाँ, जिनसे किराना घराने का जन्म हुआ। अपने गुरु सवाई गंधर्व (कुंदगोल) से 5 साल तक तोड़ी और पूरिया, भैरव और यमन इन 10-5 रागों की तालीम का सबक ले, गले पर गायकी के संस्कार डाल पंडितजी ने खयाल गायकी को प्रगल्भ परिपूर्णता के साथ आश्वासक विस्तार दिया। रियाज का गाना यानी मेहनत का गाना यह सच है, लेकिन इसी रियाज से जो बुलंद, घुमावदार सुर पंडितजी को मिला, उसी से आपके हमारे सभी के मन का गर्भगृह भर गया।
यहाँ गुरु के गुरु की खासियत यानी उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब की खासियत को आपने किस खूबी और उत्कटता से अपनाया, वह सुनने काबिल है। खाँ साहब के आवाज की जात महीन, पतली व तराशी हुई, लेकिन सुर ऐसे कमाल! एक बार तानपुरे मिले और षड्ज लगा नहीं बस... और यही कीमिया पंडितजी ने भी हासिल की है। खाँ साहब ठुमरी और नाट्य संगीत में सरगम भी करते थे। ठुमरी की नजाकत उसमें श्रृंगार की अभिव्यक्ति और उस पर दिलकश नक्काशीदार सरगम...। ये तमाम खासियत पंडितजी के गायन में उतनी ही कूवत और उत्कटता से पेश होती हैं।
पंडितजी के 'खयाल' में सैकड़ों सालों की श्रेष्ठ परंपरा के दर्शन होते हैं। वह परंपरा, जिसमें रागों की बंदिशों के माध्यम से हर पल नया रूप सामने आता है। पंडितजी रात की महफिलों में यमन, शुद्ध कल्याण, मारुबिहाग, बिहाग, बसंत बहार, मियाँ मल्हार, सुर मल्हार, अभोगी, दरबारी-दरबारी कानडा, छाया, छायानट, छाया मल्हार, शंकरा ये हमेशा के राग और चिर-परिचित बंदिशों को गाते हैं, लेकिन उसमें भी उनकी गायकी के बलस्थान भरपूर नजर आते हैं। पंडितजी खयाल भरने और मंद आलाप से राग विस्तार करते पहले 5-10 मिनट में ही सुरों का राज आरंभ करते हैं।
यह वो माहौल, वह पल होता है जिसकी कूवत का नाम भीमसेनी गायकी है। पंडितजी परंपरा पर कायम रहते खयाल को आमजनों तक पहुँचाने में कामयाब रहे। आलाप, तान, बोलतान, गमक और तीनों सप्तकों में सहजता से घूमने वाला गला!
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आज गाए जाने वाले खयाल गायकी को प्रबंध और ध्रुपद की परंपरा है, जिसके दूत हैं पंडितजी। आपने जहाँ से और जो भी मिला उसे ग्रहण किया। फिर दृष्टिहीन भगत मंगतराम से मिला ध्रुपद का सबक हो या बखलेबुवा, विनायकबुवा पटवर्धन जैसे बुजुर्गों का गायन हो। रियाज के साथ सुनने को एहमियत दी। उस जमाने में जब गंडाबद्ध घराने की गायकी में शागिर्दों को कान और मन के पट बंद रखने की ताकीद दी जाती थी, जिसके पंडितजी अपवाद हैं।
यूँ तो केसरबाई जयपुर घराने की गायिका, लेकिन उनकी दमसास, घुमारा, पल्लेदार तानों को आत्मीयता से अपनाते पंडितजी ने कोई परहेज नहीं किया। इन बुजुर्गों में उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और बाल गंधर्व भी शामिल रहे। उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की ठुमरी तो बाल गंधर्व का नाट्य संगीत! दोनों अपने-अपने फन के दिग्गज! परंपरा को स्वीकारते बुजुर्गों और समकालीन के गुणों को पंडितजी ने अपनाया।
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में परंपरा का सफर जुदा-जुदा है। सो प्रतिभा के रूप भी अलहदा ही नजर आते हैं। शायद यही वजह रही कि पंडितजी और उनके समकालीन गायकों के बीच प्रतिस्पर्धा और उनके तरीके अलहदा थे। यही वजह रही कि रागशास्त्र की चौखट में परंपरा को स्वीकारते पंडितजी का खयाल फैलते-फैलते देश और परदेस तक पहुँच गया।