ये मीर तक़ी मीर का क़लाम था, जिसको उठाकर महाकवि आनंद बक्षी ने यह गीत बुना और लक्ष्मी-प्यारे की जोड़ी ने उसकी वो जांलेवा धुन बांधी। मीर के क़लाम के बारे में ये फ़रमाया गया है कि उसमें जैसा "पैथॉस" है, आत्मदैन्य की जैसी गति है, और तिस पर भी फ़लस्फ़ाई उठानों का जो तौर है, उसकी कोई दूसरी मिसाल उर्दू शाइरी में नहीं है। यही वजह है कि ख़ुद ग़ालिब मीर से बेहद मुतास्सिर रहते थे। ग़ालिब के यहां ज़िंदादिल फ़ाकामस्ती है और मीर के यहां पुरदर्द सोग़, इन दोनों पतवारों ने मिलकर उर्दू शाइरी की नैया किनारे लगाई है।
"दिखाई दिए यूं के बेख़ुद किया", ये भी मीर का ही क़लाम था, जिस पर ग़ालिब निछावर हो गए थे। "पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है", ये भी मीर का ही क़लाम है। ये उम्दा ख़याल मीर के ही बरबाद दिल की ग़र्त से निकला था। मीर की इसी ग़ज़ल में ये मिसरा भी आता है कि "क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना, जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है।"
और तब, साल 1972 में, मीर के उसी क़लाम को उठाकर बीआर इशारा ने अपनी निहायत मेलोड्रमैटिक फ़िल्म "एक नज़र" के एक गीत में "सुपरइम्पोज़" कर दिया। अदब के हिमायती चाहें तो इसे "कुफ्र" कह सकते हैं और ये उनका हक़ है, लेकिन दूसरे दर्जे की उस फ़िल्म में कुछ नायाब चीज़ें भी थीं, जैसे कि नौजवान अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी की तब परवान चढ़ रही मोहब्बत, जो स्क्रीन पर ज़ाहिर होने को बेताब थी। जैसे कि लक्ष्मी-प्यारे की देशी धुनें, जो उस ज़माने में तमाम मजमे लूट लिया करती थीं। और जैसे, लता और रफ़ी की गान-युति, जैसी कोई और मिसाल हमने पहले नहीं देखी और आने वाले एक हज़ार सत्ताइस सालों में फिर नहीं देखेंगे, बाद उसके भी कौन जाने कभी नहीं।
"जाने ना जाने गुल ही ना जाने बाग़ तो सारा जाने है"
चुनांचे, लिहाज़ा, हस्बेमामूल -- तमाम दोगाने एक तरफ़ और यह दोगाना दूसरी तरफ़। तराज़ू का कांटा डिग जाये जो तनिक भी उस तरफ़, मजाल है!
इसकी शिद्दतों का आलम क्या कहना, एक गूंज का बगूला है दिल की खोह में ग़र्क होता।
लता ने प्रेम में आकंठ डूबी स्त्री के तन्मय विकल के साथ इसे गाया है। रफ़ी साहब ने एक आश्वस्त प्रेयस के किंचित उदास लेकिन संभले हुए स्वर के साथ उनसे आपसदारी की है।
गीत का संवेदनशील फ़िल्मांकन देखें, लैंडस्केप में पर्सपेक्टिव का बरताव। वानस्पतिक गंध से आप भर जाएंगे, रंगो-बू के अंजुमन में। तबले के ख़ुदमुख़्तार बोल सुनिये, तीन ताल की लड़ी है, इतनी हसीन कि कंठहार बनाकर पहन लेंगे। वो अपने में पूर्ण रागमाला है के महज़ तबला सुनें तमाम जुम्बिशों को बुझाकर तो वो ही निजात है, अपने में मुक़म्मिल औ भरपूर।
तिस पर मोहब्बतों का गाढ़ा रंग है, कान से सुनेंगे पर पूरे डौल में उतर आयेगा, जैसे फाग का लहू उतर आता है टेसू की शिराओं में।
इस गीत में गहरे सोग़ में डूबे विषण्ण स्वर की ध्रुवपंक्ति लता बांधती हैं, बाद उसके अंतरे में रफ़ी साहब की ज़ोरदार आमद है : "कोई किसी को चाहे तो क्यों गुनाह समझते हैं लोग।" साहेबान, तमाम मशालें बुझाकर ये आमद सुनिए। इस ज़िंदा, जावेद और मक़बूल आमद पर दो जहां निसार हैं। बाद उसके, तबले की दुलकी चाल सुनिए, जो दिल को अनेक क़तरों में कुतरकर रख देती है। तीन ताल की ढाल पर ज्यों चली जा रही हो शाहेनशाह की सवारी और वो अज़ीमुश्शान घुड़सवार गिरकर खेत रहे हों। ऐसा एक त्रासद और शानदार मिथक ज़ेहन के गलियारों में गूंजता है।
ऐ नग़मे, तुम ख़ुद बहार हो
अपने में संजोये अपने तमाम पतझर भी।
के तुम एप्रिल की एक शाम हो, जैसे कि यह!
के तुम इश्क़ का ख़याल हो।
ख़ुदावंद ने तुझे चूमकर कहा था के : "जाओ, जो भी प्यार करेगा तुमको गुनगुनाये बिना लांघ नहीं सकेगा चांद की देहरी, तोड़ नहीं पायेगा धनक का धनुष। के तुम नग़मा-ए-आला कहलाओगे।" और बाद उसके, जाने कितने सूरज बुझे, आशिक़ तमाम यही गुनगुनाते फिरते हैं :