अनुराग वैद्य
शबनम की बूँद नहीं, नन्ही एक रेत हूँ
लहलहाती बगिया नहीं, गरीब एक खेत हूँ
कभी खत्म ना हो, ऐसा लंबा पतझड़ हूँ
शब्दों का साथ मिला नहीं,ऐसा एक अनपढ़ हूँ
यादों के रेतीले तुफान में, खड़ा हूँ अकेला
तुम आकर ले जाओ, यादों का यह मेला
फूलों के रंग से की थी मैंने मोहब्बत
काँटों से भी निभ ना सकी मेरी चाहत
रोज एक कश्ती, कहती है मुझसे
बहा ले जाओ, खड़ी हूँ मैं कब से
आज अँगुलियों से,दर्द मेरा रिसता है
इन लफ्जों में, नाम तुम्हारा चीखता है।
जाते हुए एक बार, काश, देख लेती तुम
कितना कितना रोया हूँ, काश, देख लेती तुम।