फिर वसंत की आत्मा आई, मिटे प्रतीक्षा के दुर्वह क्षण, अभिवादन करता भू का मन ! दीप्त दिशाओं के वातायन, प्रीति सांस-सा मलय समीरण, चंचल नील, नवल भू यौवन, फिर वसंत की आत्मा आई, आम्र मौर में गूंथ स्वर्ण कण, किंशुक को कर ज्वाल वसन तन ! देख चुका मन कितने पतझर, ग्रीष्म शरद, हिम पावस सुंदर, ऋतुओं की ऋतु यह कुसुमाकर, फिर वसंत की आत्मा आई, विरह मिलन के खुले प्रीति व्रण, स्वप्नों से शोभा प्ररोह मन ! सब युग सब ऋतु थीं आयोजन, तुम आओगी वे थीं साधन, तुम्हें भूल कटते ही कब क्षण? फिर वसंत की आत्मा आई, देव, हुआ फिर नवल युगागम, स्वर्ग धरा का सफल समागम !