हिन्दी कविता : दिल मांगे! और...

- निशा माथुर


 
बादलों की आहट को सुनकर, सावन में नाच उठता है मोर, 
सुंदर पंखों को भूल, पैर देखकर कैसे, हो जाता कमजोर।
कस्तूरी मृग में, यायावर-सा सुगंध को, ढूंढ रहा चहुंओर, 
मृगतृष्णा का यह खेल है सारा, क्यूं दिल मांगे कुछ और?
 
मरुस्थल की तपती भटकन में कल-कल मीठे झरने का शोर, 
खारे सागर में मुसाफिर, दूर से दिख जाए, जीवन का छोर। 
कुम्हलाता, अकुलाता जून है व्याकुल, यूं बरसे घटा घनघोर।
फिर भी मरीचिका के दामन को पकड़े, क्यूं दिल मांगे और?
 
दिनभर के भूखे को, भोजन की थाली में, ज्यूं रोटी का कौर, 
कड़ी धूप में व्यथित पथिक को, मिल गई बरगद की ठौर।
लाख कोहिनूर झोली में मानव के, छूना चांद-गगन की ओर, 
मानों-अरमानों से भरी गठरिया, अब क्यूं दिल मांगे फिर और?
 
प्रेम-प्यार का सुधा कलश है, फिर क्यूं भीगी पलकें, भीगे कोर, 
अपनी काया की पहचान बना, नाम बना, वक्त भी होगा तेरी ओर।
आगत-विगत सब खाली हाथ हैं, नश्वर जीवन पर किसका जोर, 
बंद मुट्ठी क्या लेकर है जाना, रुक जा... दिल मांगे कुछ और!

 

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