सुनहरे पर्वतों के रंग फीके पढ़ गए हैं
मटमैली हुई जाती है उजली-उजली पिंडर
वही कुछ दूर पल्ली बस्तियों में
लाल पीले नीले उजाले हो गए हैं
कि जैसे काली-काली चुन्नी यों पर
कोई सितारों की कढ़ाई कर गया हो
दरीचे से मैं बैठा देखता हूं
कि दुनिया शांत होती जा रही है
कि जैसे बुद्ध का वरदान हो ये