कविता : धर्म संकट में ईश्वर
कुछ बकरे सुबह हरी-हरी मुलायम घास खा रहे हैं
वे नहीं जानते कि उनका जिबह किया जाएगा किसी ईश्वर को
खुश करने के वास्ते या दी जाएगी बलि
किसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए
सदियों से प्रकृति के तमाम
जीव-जंतुओं की दी जाती रही बलि
मनुष्य की जीभ की तुष्टि के लिए या
ईश्वर को जनाने के वास्ते
और धीरे-धीरे मनुष्य होता गया
विकसित से अति विकसित
और ईश्वर द्वारा उत्पन्न प्रजातियां
हो रहीं समाप्ति के कगार पर
और सड़कों पर पूरी दुनिया में
छा गए मनुष्य और तमाम पशु-पक्षी
छुप गए जंगल स्वयं के बिलों में
अपनी प्रजाति की खैर मनाने
फिर तो मनुष्य पर हुआ किसी
अदृश्य से वायरस का आक्रमण और
शक्तिशाली मानव छिप गया अपने घरों में
मनुष्य ही नहीं ईश्वर ने भी कैद कर लिया
अपने पूजा स्थल इबादतगाह में
अपने भक्त जनों की भीड़ से बिल्कुल अलग
शायद वह नहीं सुनना चाहता अपने भक्तों की प्रार्थनाएं
बचपन में मां यह बताया करती थी
इस दुनिया में जो कुछ होता है
उसमें ईश्वर की मर्जी होती है
तो क्या ईश्वर अब नहीं स्वीकार करना चाहते
अपने भक्तों की प्रार्थनाएं
या वे धर्मसंकट में हैं कि कैसे स्वीकार करें
इनकी जीवन उद्धार की प्रार्थनाएं
जो स्वयं तमाम प्रजाति के जीवन बेल के संहारक