कविता : ईश्वर तुम हो कि नहीं हो

तनूजा उप्रेती
ईश्वर तुम हो कि नहीं हो, इस विवाद में मन उलझाए बैठी हूं। 
‘हां’ ‘ना’ के दो पाटों के बीच पिसी, कुछ प्रश्न उठाए बैठी हूं।
 
कि अगर तुम हो, तो इतने अगम, अगोचर और अकथ्य क्यों हो?
विचारों के पार मस्तिष्क से परे, ‘पुहुप बास तै पातरे’ क्यों हो?
 
तुम्हें खोजने की विकलता ने, जब प्राप्य ज्ञान खंगाला, 
तो द्वैत, अद्वैत और द्वैताद्वैत ने मुझको पूरा उलझा डाला।
 
तुम सुनते हो यदि या कि मुझे तुम सुन पाओ, 
एक प्रार्थना है तुमसे, तुम खुद को थोड़ा सरल बनाओ।
 
क्यों नहीं सीधे-सीधे, तुम्हारा बोध हो जाए।
जो भी टूट कर चाहे, वह तुमको पा जाए।
 
तुम सहज प्राप्त हो जाते तो,  जाने कितनी ‘निर्भया’ बच जातीं।
धर्म का नाम लेकर उठती, अधर्म की आंधिय़ां थम जातीं।
 
क्षुधित बालकों के हाथों में, रोटी बन कर आ जाओ।
प्यासी हलकान धरती पर, मेघ बन बरस जाओ।
 
मरते हुए किसानों के खेतों में, नन्ही बौरें बनकर खिल जाओ।
रहस्य से पगी हुई परतें, अब खुद उधेड़ बाहर आओ।
 
अनंत ब्रह्मांड में तुम्हें क्योंकर खोजें,
क्यों न हर आत्मा में सजीव हो जाओ I

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