हिन्दी कविता : पिता बहुत जिद्दी थे...

पिता बहुत जिद्दी थे
जिद थी बुराई में अच्छाई देखते जाने की
दूसरों की गलतियों को अनदेखा करते रहने की
मान-अपमान भूल जाने की
 
नैतिकता को जी जान से निबाहने की
जिंदगी में प्यार बांटते चले जाने की
हमने हमेशा की उनकी आलोचना
इस जमाने में जीने का ये कोई तरीका है भला?
 
संघर्षों ने भी हमेशा उन्हें उलाहना दिया
इतना कुछ सहकर क्या कमा लिया?
कम कमाने को लेकर हम सब भी कहीं नाराज थे
पर पूरे हों हमारे सपने उनके ये ही ख्वाब थे
 
संघर्ष उनके साथ चलते रहे
एक दिन मां ने फोन पर कहा-"पिता नहीं रहे"
 
मैंने देखा अपनी हो या पराई
उनको जानने वाली हर एक आंख नम थी
शायद यही थी उनकी सबसे बड़ी कमाई
बड़ी कठिन घडी थी 
समझ नहीं आता था क्या कर जाऊं!
अपनी मृत देह का शोक कैसे मनाऊं? 
 
पिता चले गए पर उनकी जिद नहीं गई
धीरे-धीरे फूट रहे हैं मुझमें उनकी बातों के अंकुर
आश्चर्य! पर सत्य है उनकी कमियां मुझमें अब कर रही हैं घर
संघर्ष मुझे भी उलाहना देने लगे हैं
पिता अब मेरे भीतर जीने लगे हैं!

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