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हिन्दी कविता : मदद के पंख कैसे जलते...
संजय वर्मा 'दृष्टि'
दु:ख की परिभाषा
भूखे से पूछो
या जिनके पास पैसा नहीं हो
उससे पूछो
अस्पताल में बीमार के परिजन से पूछो
बच्चों की फीस भरने का इंतजाम करने वालों से पूछो
लड़की की शादी के लिए इंतजाम करने वालों से पूछो।
जब ऐसे इंतजाम सर पर आ खड़े हो
कविताएं अपनी खोल में जा दुबकती हैं
मैदानी मुकाबले किताबी अक्षरों में
हो जाती बेसुध
मदद की कविता जब अपनों से गुहार करती
तब मदद के पंख या तो जल जाते या फिर कट जाते।
क्या ताउम्र तक इंसान ऋणी के रोग से
पीड़ित होता है
हां, होता है ये सच है
क्योंकि सच हमेशा कड़वा और सच होता
अपने भी मुंह मोड़ लेते।
ये भी सच है कि इंसान के पास
पैसा होना चाहिए
तो पूछ-परख होती है
पैसा है तो इंसान की पूछ-परख
नहीं तो मददगार पहले ही भिखारी का भेष
पहनकर घूमते
पैसा है तो आपकी वखत
नहीं तो रिश्ते भी बैसाखियों पर टिक जाते।
दुनिया में इंसान ने अपनी राह
स्वयं को चुनना
सलाह सबकी मगर करना मन की
नहीं तो कर्ज की गर्त में।
दु:खों से खुशियों को निकलते किसी ने
आज तक नहीं देखा
भाग्य के ख्वाब बस सपनों तक ही
सीमित।
क्योंकि कर्ज देना स्वयं को देना है
और उधार मांगते वक्त
लोग आपसे भी गरीब
बन जाते हैं।
बस सोच ये रखना
जितनी चादर उतने पांव
पसारना।
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